महाभारत वन पर्व अध्याय 131 श्लोक 16-34

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एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद

जो भी तुम शरणागत के त्याग को कैसे अच्छा मानते हो यह मेरी समझ में नहीं आता । विहंगम ! वास्तव में तुम्हारा यह उद्योग केवल भोजन प्राप्त करने के लिये है । परंतु तुम्हारे लिये आहार का प्रबन्ध तो दूसरे प्रकार से भी किया जा सकता है और वह इस कबूतर की अपेक्षा अधिक हो सकता है। सुअर, हिरण, भैंसा या कोई उत्तम पशु अथवा जो कोई भी वस्तु तुम्हें अभीष्‍ट हो, वह तुम्हारे लिये प्रस्तुत की जा सकती है । बाज बोला- महाराज ! मैं न सुअर खाउंगा, न कोई उत्तम पशु और भांति भांति के मृगो का ही आहार करुंगा । दूसरी किसी वस्तु से भी मुझें क्या लेना है । क्षत्रियों शिरोमणे ! विधाता ने मेरे लिये जो भोजन नियत किया है, वह तो यह कबूतर दी है; अत: भूपाल ! इसी को मेरे लिये छोड़ दीजिये । यह सनातन काल से चला आ रहा है कि बाज कबूतरों को खाता है। राजन धर्म के सारभूत तत्व को न जानकर आप केले के खम्बें ( जैसे सारहीन धर्म का आश्रय न लीजिये) । राजा ने कहा- विहंगम ! मैं शिबिदेश का समृद्धिशाली राज्य तुम्हें सौप दूंगा, और भी जिस वस्तु की तुम्हें इच्छा होगी वह सब दे सकता हूं । किंतु शरण लेने की इच्छा से आये हुए इस पक्षी को नहीं त्याग सकता । पक्षि‍श्रेष्‍ट श्येन ! जिस काम के करने से तुम इसे छोड़ सको, वह मुझे बताओं; मैं वही करुंगा, किंतु इस कबूतर को तो नहीं दूंगा । बाज बोला- महाराज ! उशीनर ! यदि आपका इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस काटकर तराजू में रखिये । नृपश्रेष्‍ट ! जब वह तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाय तब मुझे दे दीजियेगा, उससे मेरी तृप्ति हो जायेगी । राजा ने कहा- बाज ! तुम मेरा मांस मांग रहे हो, इसे मैं अपने उपर तुम्हारी बड़ी कृपा मानता हूं, अत: मैं अभी अपना मांस तराजू पर रखकर तुम्हें दिये देता हूं ।लोमशजी कहते है- कुन्‍तीनछन ! तत्‍पश्‍चात परम धर्मश राजा ने उशीनर ने स्‍वयं अपना मांस काटकर उस कबूतर के साथ तौलना आरम्‍भ कि‍या । कि‍तु दूसरे पलड़े में रक्‍खा हुआ कबूतर उस मांस की अपेक्षा अधि‍क भारी नि‍कला, तब महाराज उशीनर ने पुन: अपना मांस काटकर चढ़ाया । इस प्रकार बार बार काटने पर भी जब वह मांस कबूतर के बराबर न हुआ, तब सारा मांस काट लेने के पश्‍चात वे स्‍वयं ही तराजू पर चढ़ गये । बाज बोला- धर्मश नरेश ! मैं इन्‍द्र हूं और यह कबूतर साक्षात अग्‍नि‍ देव है। हम दोनों आपके धर्म की परीक्षा लेने के लि‍ये इस यज्ञशाला में आपके नि‍कट आये थे । प्रजानाथ ! आपने अपने अंगो से जो मांस काटकर चढ़ाये है, उससे फैली हुइ र् आपकी प्रकाशमान कीर्ति‍ सम्‍पूर्ण लोगों से बढ़कर होगी । राजन ! संसार के मनुष्‍य इस जगत में जब तक आपकी चर्चा करेगे, तब तक आप की र्कीति‍ और सनातन लोक स्‍थि‍र रहेगें ।राजा से ऐसा कहकर इन्‍द्र फि‍र देवलोक चले गये तथा धर्मात्‍मा राजा उशीनर भी अपने धर्म से पृथ्‍वी और आकाश को व्‍याप्‍त कर देदीप्‍यमान शरीर धारण करके स्‍वर्गलोक में चले गये । राजन ! यहीं उन महात्‍मा राजा उशीनर का आश्रम है, जो पुण्‍यजनक होने के साथ ही समस्‍त पापों से छुटकारा दिलाने वाला है। तुम मेरे साथ इस पवि‍त्र आश्रम का दर्शन करो । महाराज ! वहां पुण्‍यात्‍मा महात्‍मा ब्राह्मणों को सदा सनातन देवता तथा मुनि‍यों का दर्शन होता रहता है ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में श्येनकपोतीपाख्यान विषयक एक सौ इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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