महाभारत वन पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-18
पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
कर्दमिल क्षेत्र आदि तीर्थो की महिमा, रैम्य एवं भरद्वाज पुत्र यवक्रीत मुनि की कथा तथा ऋषियों का अनिष्ट करने के कारण मेधावी की मृत्यु
लोमशजी कहते है- राजन ! यह मधु विला नदी प्रकाशित हो रही है। इसी का नाम दूसरा नाम समंगा है और यह कर्दमिल नामक क्षेत्र है, जहां राजा भरत का अभिषेक किया गया था । कहते है, वृत्रासुर का वध करके जब शचीपति इन्द्र श्रीहीन हो गये थे, उस समय उस समंगा नदी में गोता लगाकर ही वे अपने सब पापों से छुटकारा पा सकें थे । नरश्रेष्ट ! मैंनाक पर्वत के कुक्षि भाग में यह विनशन नामक तीर्थ है, जहां पूर्वकाल में अदिति देवी ने पुत्र-प्राप्ति के लिये साध्य देवताओं के उद्देश्य से अन्न तैयार किया था । भरतवंश के श्रेष्ट पुरुष इस पर्वतराज हिमालय पर आरुढ़ होकर तुम सब अयष फैलाने वाली और नाम लेने के अयोग्य अपनी श्रीहीनता को शीध्र ही दूर भगा दोगे । युधिष्ठिर ! ये कनखल की पर्वत मालाएं है, जो ऋषियों को बहुत प्रिय लगती है। ये महानदी गंगा सुशोभित हो रही है । यहीं पूर्वकाल में भगवान सनत्कुमार सिद्धि प्राप्त की थी। अजमीढनन्दन ! इस गंगा में स्नान करके तुम सब पापों से छुटकारा पा जाओंगे । कुन्तीकुमार ! जल के इस पुण्य सरोवर, भृगुतुंग पर्वतपर तथा ‘उष्णीगं’ नामक तीर्थ में जाकर तुम अपने मन्त्रियों सहित स्नान ओर आचमन करों । यह स्थुलशिरा मुनि का रमणीय शोभा पा रहा है। कुन्तीनन्दन ! यहां अहंकार ओर क्रोध को त्याग दो । पाण्डुनन्दन ! यह रैभ्य का सुन्दर आश्रम प्रकाशित हो रहा है, जहां विद्वान भरद्वाज पुत्र यवक्रीत हो गये थे । युधिष्ठिर ने पूछा- ब्रह्मन ! प्रतापी भरद्वाज मुनि कैसे योगमुक्त हुए थे ओर उनके पुत्र यवक्रीत किसलिये नष्ट हो गये थे । ये सब बातें मैं यथार्थ रुप में ठीक ठीक सुनना चाहता हूं। उन देवोपम मुनियों के चरित्रों का वर्णन सुनकर मेरे मन को बड़ा सुख मिलता है । लोमशजी कहते है- राजन ! भरद्वाज तथा रैभ्य दोनों एक दूसरे के सखा थे और निरन्तर इसी आश्रम में बड़े प्रेम से रहा करते थे । रैभ्य के दो पुत्र थे- अर्वापसु और परावसू । भारत ! भरद्वाज के पुत्र का नाम ‘यवक्री’ अथवा ‘यवक्रीत’ था । भारत ! पुत्रोसहित रैभ्य बड़े विद्वान थे । परंतु भरद्वाज केवल तपस्या संलग्न रहते थे । युधिष्ठिर ! बाल्यावस्था से ही इन दोनो महात्माओं की अनुपम कीर्ति सब ओर फैल रही थी । निश्पाप युधिष्ठिर ! यवक्रीत ने देखा, मेरे तपस्वी पिता का लोग सत्कार नही करते है परंतु पुत्रों सहित रैभ्य का ब्राह्मणों द्वारा बड़ा आदर होता है । यह देख तेजस्वी यवक्रीत को संताप हुआ। पाण्डुनन्दन ! वे क्रोध से अविष्ट हो वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिय घोर तपस्या मे लग गये । उन महातपस्वी ने अत्यन्त प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने शरीर को तापते हुए इन्द्र के मन में संताप उत्पन्न कर दिया । युधिष्ठिर ! तब इन्द्र यवक्रीत के पास आकर बोले- ‘तुम किसलिये यह उच्च्कोटी की तपस्या कर रहे हो ।[१]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.इस अन्न को ब्रह्मौदन कहते है, जैसा कि श्रुति का कथन है।