महाभारत वन पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-17
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अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
अर्वावसु की तपस्या के प्रभाव से परावसु का ब्रह्महत्या से मुक्त होना और रैभ्य, भरद्वाज तथा यवक्रीत आदि का पुनर्जीवित होना
लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर ! इन्ही दिनों महान सौभाग्यशाली एवं प्रतापी नरेश बृहद्द्युम्न ने एक यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया। वे रैभ्य के यजमान थे । बुद्धिमान बृहद्द्युम्न ने यज्ञ की पूर्ति के लिये रैभ्य के दोनों पुत्र अर्वावसु तथा परावसु को सहयोगी बनाया । कुन्तीनन्दन ! पिता की आज्ञा लेकर वे दोनों भाई तथा राजा के यज्ञ में चले गये। आश्रम में केवल रैभ्य मुनि तथा उनके पुत्र परावसु की पत्नी रह गयी। एक दिन घर कर देख भल करने के लिये परावसु अकेले ही आश्रम पर आये। उस समय उन्होने काले मृगचर्म से ढके हुए अपने पिता को वन में देखा । रात का पिछला पहर बीत रहा था और भी अन्धकार शेष था। परावसु नींद से अन्धें हो रहे थे; अत: उन्होंने गहन वन मे विचरते हुए अपने पिता को हिंसक पशु ही समझा । और उसे हिंसक पशु समझकर धोखे से ही उन्होंने अपने पिता की हत्या कर डाली। यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, तथापि हिंसक पशु से अपने शरीर की रक्षा के लिये उनके द्वारा यह क्रूरतापूर्ण कार्य बन गया । भारत ! उसने पिता के समस्त प्रत कर्म करके पुन: यज्ञमण्डल में आकर अपने भाई अर्वावसु से कहा- ‘भैया ! वह यज्ञकर्म तुम अकेले किसी प्रकार निभा नहीं सकते। इधर मेने हिसंक पशु समझकर धोखे से पिताजी की हत्या कर डाली है; इसलिये तात ! तुम मेरे लिये ब्रह्महत्यानिवारण के हेतु व्रत करो और मैं राजा का यज्ञ कराउंगा। मुने ! मैं अकेला भी इस कार्य का सम्पादन करने में समर्थ हूं ‘ । अर्वावासु बोले- भाई ! बुद्धिमान राजा बृहद्द्युम्न यज्ञकार्य सम्पन्न करें और मैं आपके लिये इन्द्रिय संयम पूर्वक ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करूंगा । लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर ! अर्वावसु मुनि भाई के लिये ब्रह्महत्या का प्रायश्चित पूरा करके पुन: उस यज्ञ मे आये । परावसु नें अपने भाई को वहां उपस्थित देखकर राजा बृहद्द्युम्न वाणी में कहा- ‘राजन ! यह ब्रह्महत्यारा है । अत: इसे आपका यज्ञ देखने के लिये इस मण्डप मे प्रवेश नहीं करना चाहिये। ब्रह्मघाती मनुष्य अपनी दृष्टमात्र से भी आपको महान कष्ट में डाल सकता है, इसमें संशय नहीं है’ । लोमशजी कहते है- प्रजानाथ ! परावसु की यह बात सुनते ही राजा ने अपने सेवकों को यह आज्ञा दी कि ‘अर्वावसु को भीतर न आने दो।‘ राजन ! उस सयम सेवकों द्वारा हटाये जाने पर अर्वावसु ने बार-बार यह कहा कि ‘मैंने ब्रह्महत्या नहीं की है।‘ भारत ! तो भी राजा के सेवक उन्हे ब्रह्महत्या कहकर ही सम्बोधित करते थे । अर्वावसु किसी तरह उस ब्राह्महत्या को अपनी की हुई स्वीकार नहीं करते थे। उन्होने बार-बार यही बताने की चेष्टा कि कि ‘मेरे भाई ने ब्रह्महत्या की है । मैंने तो प्रायश्चित करके उन्हे पाप से छुड़ाया है’ । उन के ऐसा कहने पर भी राजा के सेवक ने उन्हे क्रोध पूर्वक फटकार दिया। तब वे महातपसवी ब्रहर्षि चुपचाप वन को चले गये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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