महाभारत वन पर्व अध्याय 145 श्लोक 17-37
पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
वह पर्वतीय प्रदेश मतवाले विहंगो और अगणित वृक्षों से युक्त था। पाण्डवों ने उत्तम समृद्धि से सम्पन्न् बहुत से देशों को लांघकर भांति भांति के आश्चर्यजनक द्दश्यों से सुशोभित पर्वत श्रेष्ट कैलाश का दर्शन किया। उसी के निकट उन्हें भगवान नरनारायण का आश्रम दिखायी दिया, जो नित्य फल फूल देने वाले दिव्य वृक्षों से अंलकृत था। वहीं वह विशाल एवं मनोरम बदरी भी दिखायी दी, जिसका स्क्न्ध (तना ) गोल था। वह वृक्ष बहुत ही चिकना, घनी छाया से युक्त और उत्तम शोभा से सम्पन्न था। उस शुभ वृक्ष के सघन कोमल पत्ते भी बहुत चिकने थे । उसकी डालियों बहुत बड़ी और बहुत दूरतक फैली हुई थी। वह वृक्ष अत्यन्त कान्ति से सम्पन्न था। उसमें अत्यन्त स्वादिष्ट दिव्य फल अधकि मात्रा में लगे हुए थे। उन फलों से मधु की धरा बहती रहती थी। उस दिव्य वृक्ष के नीचे महर्षियों का समुदाय निवास करता था। वह वृक्ष सदा मदोन्तम्म एवं आनन्द विभोर पक्षियों से परिपूर्ण रहता था । उस प्रदेश में डांस और मच्छरों का नाम नहीं था। फल मूल और जल की बहुतायत थी। वहां की भूमि हरी हरी घास ढकी हुई थी। देवता और गर्न्धव वहां निवास करते थे। उस प्रदेश का भूभाग स्वभावत: समतल और मंगलमय था। उस हिमाच्छादित भूमि का स्पर्श अत्यनत मृदु था। उस देश मे कांटो का कही नाम नहीं था। ऐसे पावन प्रदेश में वह विशाल बदरी का वृक्ष उत्पन्न हुआ था । उसके पास पहूंचकर ये सब महात्मा पाण्डव उन श्रेष्ट ब्राह्मणों के साथ राक्षसों के कंघे से धीरे धीरे उतरे राजन ! तदनन्तर ब्राह्मणों सहित पाण्डवों ने एक साथ भगवान नरनारायण के उस रमणीय दर्शन किया । जो अन्धकार एवं तमोगुण से रहित तथा पुण्यमय थ। ( वृक्षों की सघनता के कारण ) सूर्य की किरणों उसका स्पर्श नहीं कर पाती थी। वह आश्रम भूख, प्यास, सर्दी और गर्मी आदि दोषों से रहित और सम्पूर्ण शोंको का नाश करने वाला था । महाराज ! वह पावन तीर्थ महर्षियों के समुदाय से भरा हुआ और ब्राह्मी श्री से सुशोभित था। धर्महीन मनुष्यों का वहां प्रवेश पाना अत्यनत कठिन था । वह दिव्य आश्रम देव पूजा और होम से अर्चित था। से झाड़ बुहारकर अच्छी तरह लीपा गया था। दिव्य पुष्पों के उपहार सब ओर से उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । विशाल अग्निहोत्र गृहों और स्त्रुकृ स्त्रुआ आदि सुन्दर यज्ञ पात्रों से व्याप्त वह पावन आश्रम जल से भरे हुए बडे बड़े कलशों और बर्तनो से सुशोभित था । वह सब प्राणियों के शरण लेने योग्य था। वहां वगद मन्त्रों की ध्वनी गूंजती रहती थी। वह दिव्य आश्रम सबके रहने योग्य और थकावट को दूर करने वाला था । वह शोभासम्पन्न आश्रम अवर्णनीय था। देवोचित कार्यो का अनुष्टान उसकी शोभा बढ़ाता था। उस आश्रम में फल-मूल खाकर रहने वाले, कृषणमृग चर्म धारी, जितेन्द्रिय, अग्नि तथा सूर्य के सामन तेजस्वी और तप:पूत अन्त:करण वाले महर्षि, मोक्षपरायण, इन्द्रिय-संयमी संन्यासी तथा महान सौभाग्यशाली ब्रह्मवादी ब्रह्मभूत महात्मा निवास करते थे। महातेजस्वी, बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर पवित्र और एकाग्रचित्त होकर भाईयों के साथ उन आश्रमवादी महर्षियों के पास गये। युधिष्ठिर को आश्रम मे आया देख वे दिव्यज्ञान सम्पन्न सब महर्षि अत्यनत प्रसन्न होकर उनसे मिले और उन्हें अनेक प्रकार के आर्शीवाद देने लगे । सदा वेदों का स्वाध्याय में तत्पर रहने वाले उन अग्नितुल्य तेजस्वी महात्माओं ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर का विधिपूर्वक सत्कार किया और उनके लिये पवित्र फल मूल, पुष्प और जल आदि सामग्री प्रस्तुत की ।
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