महाभारत वन पर्व अध्याय 164 श्लोक 1-20

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चतु:षष्टयधिकशततम (164) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: चतु:षष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

पाण्ड़वोंकी अर्जुनके लिये उत्कण्ठा और अर्जुनका आगमन

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उस पर्वतराज गन्धमादनपर उत्तम व्रतका आश्रय ले निवास करते हुए अर्जुनके दर्शनकी इच्छा रखनेवाले महामना पाण्डवोंके मनमें अत्यन्त प्रेम और आनन्दका प्रादुर्भाव हुआ। वे सब-के-सब बड़े पराक्रमी थे। उनकी कामनाएं अत्यन्त विशुद्ध थीं। वे तेजस्वी तो थे ही, सत्य और धैर्य उनके प्रधान गुण थे; अतः बहुत-से गन्धर्व तथा महर्षिगण उनसे प्रेमपूर्वक मिलने-जुलनेके लिये आने लगे'। वह श्रेष्ठ पर्वत विकसित वृक्षावलियोंसे विभूषित था। वहां पहुंच जानेसे महारथी पाण्डवोंके मनमें बड़ी प्रसन्नता रहने लगी। ठीक उसी तरह, जैसे मरूद्रणोंको स्वर्गलोकमें पहुंचनेपर प्रसन्नता होती है। उस महान् पर्वतके शिखर मयूरों और हंसोंके कलनादसे गूंजते रहते थे। वहां सब ओर सुन्दर पुष्प् व्याप्त हो रहे थे। उन मनोहर शिखरोंको देखते हुए पाण्डवलोग बड़े हर्षके साथ वहां रहने लगे। उस श्रेष्ठ शैलपर साक्षात् भगवान् कुबेरने अनेक सुन्दर सरोवर बनवाये थे, जो कमल-समूहसे आच्छादित रहते थे। उनके जल शैवाल आदिसे ढके होते थे और उन सबमें हंस, कारण्डव आदि पक्षी सानन्द निवास करते थे पाण्डवोंने उन सरोवरोंको देखा। धनाध्यक्ष राजा कुबेरके लिये जैसे होने चाहिये, वैसे ही समृद्धिशाली क्रीड़ा-प्रदेश वहां बने हुए थे। विचित्र मालाओंसे समावृत होनेके कारण उनकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी। उनको मणि तथा रत्नोंसे अलंकृत किया गया था; जिससे वे क्रीड़ा-स्थल मनको मोहे लेते थे। अनेक वर्णवाले विशाल सुगन्धित वृक्षों तथा मेघसमूहोंसे व्याप्त उस पर्वतशिखरपर विचरते हुए सदा तपस्यामें ही संलग्न रहनेवाले पाण्डव उस पर्वतकी महताका चिन्तन नहीं कर पाते थे। वीरवर जनमेजय! पर्वतराज गन्धमादनके अपने तेजसे तथा वहांकी तेजस्विनी महौषधियोंके प्रभावसे वहां सदा प्रकाश व्याप्त रहनेके कारण दिन-रातका कोई विभाग नहीं हो पाता था। जिन भगवान् सूर्यका आश्रय लेकर अभित तेजस्वी अग्निदेव सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियोंका पोषण करते है, उनके उदय और अस्तकी लीलाको पुरूषसिंह वीर पाण्डव वहां रहकर स्पष्ट देखते थे। वे वीर पाण्डव वहांसे अन्धकारके आगमन और निर्गमनको, अन्धकारविनाशक भगवान् सूर्यके उदय और अस्तकी लीलाको तथा उनके किरणसमूहोंसे व्याप्त हुई सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओंको देखकर स्वाध्याय में संलग्न रहते थे। सदा शुभ-कर्मोंके अनुष्ठानमें तत्पर रहकर प्रधानरूपसे धर्मका ही आश्रय लेते थे। उनका आचार-व्यवहार अत्यन्त पवित्र था। वे सत्यमें स्थित होकर सत्यव्रतपरायण महारथी अर्जुनकी आगमनकी प्रतीक्षा करते थे। 'इस पर्वतपर आये हुए हमस ब लोगोंको यही अस्त्र-विद्या सीखकर पधारे हुए अर्जुनके दर्शनसे शीघ्र ही अत्यन्त हर्षकी प्राप्ति हो;, इस प्रकार परस्पर शुभ-कामना प्रकट करते हुए वे सभी कुन्तीपुत्र तप और योगके साधनमें संलग्न रहते थे। उस पर्वतपर विचित्र वन-कुंजोंकी शोभा देखते और निरन्तर अर्जुनका चिन्तन करते हुए पाण्डवोंको एक दिन रातका समय एक वर्ष के समान प्रतीत होता था। जबसे धौम्य मुनिकी आज्ञा लेकर महामना अर्जुन सिरपर जटा धारण करके तपस्याके लिये प्रस्थित हुए थे, तभीसे उन पाण्डवोंके मनमें रंचमात्र भी हर्ष नहीं रह गया था। उनका मन निरन्तर अर्जुनमें ही लगा रहता था। ऐसी दशामें उन्हें सुख कैसे प्राप्त हो सकता था ? गजराजके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले वे अर्जुन जब बड़े भाई युधिष्ठिरकी आज्ञा लेकर काम्यक वनसे प्रस्थित हुए थे, तभी समस्त पाण्डव शोकसे पीडित हो गये थे। जनमेजय! अस्त्र-विद्याकी अभिलाषासे देवराज इन्द्रके समीप गये हुए श्वेतवाहन अर्जुनका चिन्तन करनेवाले पाण्डवोंका एक मास उस पर्वतपर बड़ी कठिनाईसे व्यतीत हुआ। इधर अर्जुनने इन्द्र-भवनमें पांच वर्ष रहकर देवेश्वर इन्द्रसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये। इस प्रकार अग्नि, वरूण, सोम, वायु, विष्णु, इन्द्र, पशुपति, ब्रह्मा, परमेष्ठी, प्रजापति, यम, देवेन्द्रसे धाता, सविता, त्वष्टा तथा कुबेरसम्बन्धी अस्त्रोंको भी देवेन्द्रसे ही प्राप्त करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उनसे अपने भाइयोंके पास लौटनेकी आज्ञा पाकर उनकी परिक्रमा करके अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए और हर्षोल्लासमें भरकर गन्धमादनपर आये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें अर्जुनाभिगमनविषयक एक सौ चौसठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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