महाभारत वन पर्व अध्याय 168 श्लोक 1-23
अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
अर्जुन द्वारा स्वर्गलोक में अपनी अस्त्रशिक्षा और निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
अर्जुन कहते हैं- भारत! देवाधिदेव परमात्मा भगवान् त्रिलोचन के कृपाप्रसाद से मैंने प्रसन्नतापूर्वक वह रात वहीं व्यतीत की। सवेरा होनेपर पूर्वाहनकालकी क्रिया पूरी करके मैंने पुनः उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणको अपने समक्ष पाया, जिनका दर्शन मुझे पहले भी हो चुका था। भरतकुलभूषण! उनसे मैंने अपना सारा वृतान्त यथावत् कह सुनाया और बताया कि मैं भगवान् महादेवजीसे मिल चुका हूं। राजेन्द्र! तब वे विप्रवर बड़े प्रसन्न होकर मुझसे बोले- 'कुन्तीकुमार! जिस प्रकार तुमने महादेवजीका दर्शन किया है, वैसा दर्शन और किसी ने नही किया है। 'अनघ! अब तुम यम आदि सम्पूर्ण लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन करोगे और वे भी तुम्हें अस्त्र प्रदान करेंगे'। राजन्! ऐसा कहकर सूर्यके समान तेजस्वी ब्राह्मण देवताने मुझे बार-बार हृदय से लगाया और फिर वे इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। शत्रुविजयी नरेश! तदनन्तर जब वह दिन ढलने लगा, तब पुनः इस जगत में नूतन जीवन का संचार सा करती हुई पवित्र वायु चलने लगी और उस हिमालयके पार्श्ववर्ती प्रदेश में दिव्य, नवीन और सुगन्धित पुष्पों की वर्षा होने लगी। चारों ओर अत्यन्त भयंकर प्रतीत होने वाले दिव्य वाद्यों और इन्द्र सम्बन्धी स्तोत्रों के मनोहर शब्द सुनायी देने लगे। सब गन्धर्वों और अप्सराओंके समूह वहां देवराज इन्द्रके आगे रहकर गीत गा रहे थे। देवताओंके अनेक गण भी दिव्य विमानोंपर बैठकर वहां आये थे। जो महेन्द्रके सेवक थे और जो इन्द्रभवनमें ही निवास करते थे, वे भी वहां पधारे। तदनन्तर थोड़ी ही देरमें विविध आभूषणोंसे विभूषित हरे रंगके घोड़ोसे जुत हुए एक सुन्दर रथके द्वारा शचीसहित इन्द्रने सम्पूर्ण देवताओं के साथ वहां पदार्पण किया। राजन्! इसी समय सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य-लक्ष्मीसे सम्पन्न नरवाहन कुबेरने भी मुझे दर्शन दिया। दक्षिण दिशाकी ओर दृष्टिपात करनेपर मुझे साक्षात् यमराज खड़े दिखायी दिये। वरूण और देवराज इन्द्र भी क्रमश पश्चिम और पूर्व दिशामें यथास्थान खड़े हो गये। महाराज! नरश्रेष्ठ! उन सब लोकपालोंने मुझे सान्त्वना देकर कहा-सव्यसाची अर्जुन! देखो, हमस ब लोकपाल यहां खड़े हैं। 'देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये ही तुम्हें भगवान् शंकरका दर्शन प्राप्त हुआ था। अब तुम चारों ओर घुमकर हम लोगोंसे भी दिव्यास्त्र ग्रहण करो'। प्रभो! तब मैंने एकाग्रचित हो उन उत्तम देवताओंको प्रणाम करके उन सबसे विधिपूर्वक महान् दिव्यास्त्र प्राप्त किये। भारत! जब मैं अस्त्र ग्रहण कर चुका, तब देवताओंने मुझे जानेकी आज्ञा दी। शत्रुदमन! तदनन्तर सब देवता जैसे आये थे, वैसे अपने-अपने स्थानको चले गये। देवेश्वर भगवान् इन्द्रने भी अपने अत्यन्त प्रकाशपूर्ण रथपर आरूढ़ हो मुझसे कहा-'अर्जुन! तुम्हें स्वर्गलोककी यात्रा करनी होगी। 'भरतश्रेष्ठ! धनंजय यहां आनेसे पहले ही मुझे तुम्हारे विषयमें सब कुछ ज्ञात हो गया था। इसके बाद मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। 'पाण्डुनन्दन! तुमने पहले अनेक बार बहुतसे तीर्थोंमें स्नान किया है। और इस समय इस महान् तपका भी अनुष्ठान कर लिया है, अतः तुम स्वर्गलोकमें शरीर जानेके लिये अधिकारी हो गये हो। 'शत्रुसूदन! अभी तुम्हें और भी उत्तम तपस्या करनी है और स्वर्गलोकमेंअवश्य पदार्पण करना है। 'मेरी आज्ञासे मातलि तुम्हें स्वर्गमें पहुंचा देगा। पाण्डवश्रेष्ठ! यहां रहकर जो तुम अत्यन्त दुष्कर तपकर रहे हो, इसके कारण देवताओं तथा महात्मा मुनियोंमें तुम्हारी ख्याति बहुत बढ़ गयी हैं'।
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