महाभारत वन पर्व अध्याय 168 श्लोक 47-68

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अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! वहां रजोगुणजनित विकार नहीं सताते, बुढ़ापा नहीं आता; शोक, दीनता और दुर्बलताका दर्शन नहीं होता। महाराज! शत्रुसूदन! स्वर्गवासी देवताओंको कभी ग्लानि नहीं होती। उनमें क्रोध और लोभका भी अभाव होता है। राजन्! स्वर्गमें निवास करनेवाले प्राणी सदा संतुष्ट रहते हैं। वहांके वृक्ष सर्वदा फल-फूलसे सम्पन्न और हरे पतोसे सुशोभित रहते हैं। वहां सहस्त्रों सौगन्धिक कमलोंसे अलंकृत नाना प्रकारके सरोवर शोभा पाते हैं और शीतल, पवित्र, सुगन्धित एवं नवजीवनदायक वायु सदा बहती रहती है। वहांकी भूमि सब प्रकारके रत्नोंसे विचित्र शोभा धारण करती है और (सब ओर बिखरे हुए ) पुष्प् उस भूमिके लिये आभूषणका काम देते हैं। स्वर्गलोकमें बहुतसे मनोहर पशु और पक्षी देखे जाते हैं, जिनकी बोली बड़ी मधुर प्रतीत होती है। वहां अनेक देवता आकाशमें विमानोंपर विचरते दिखायी देते है। तदनन्तर मुझे वसु, रूद्र, साध्य, मरूद्रण, आदित्य और अश्विनीकुमारोंके दर्शन हुए। मैंने उन सबके आगे मस्तक झुकाकर उनका स्वागत किया। उन सबने मुझे पराक्रमी, यशस्वी, तेजस्वी, बलवान्, अस्त्रवेता और संग्राम-विजयी होनेका आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् देवगन्धपर्वपूजित दिव्य अमरवतीपुरीमें प्रवेश करके मैंने हाथ जोडकर सहस्त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रको प्रणाम किया। दाताओंमें श्रेष्ठ देवराज इन्द्रने प्रसन्न होकर मुझे अपने आधे सिंहासनपर स्थान दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने बड़े आदरके साथ मेरे अंगोपर हाथ फेरा। यज्ञोंमें पूरी दक्षिणा देनेवाले भरतश्रेष्ठ! उस स्वर्गलोकमें मैं देवताओं और गन्धर्वों के साथ अस्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये रहने लगा और प्रतिदिन अस्त्रोंका अभ्यास करने लगा। उस समय गन्धर्वराज विश्वावसुके पुत्र चित्रसेनके साथ मेरी मैत्री हो गयी थी। नरेश्वर! उन्होंने मुझे सम्पूर्ण गान्धर्ववेद (संगीत-विद्या) का अध्ययन कराया। राजन्! वहां इन्द्रभवनमें अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण करते हुए मैं बड़े सम्मान औरसुख से रहने लगे। वहां सभी मनोवांछित पदार्थ मेरे लिये सुलभ थे। भरतश्रेष्ठ! मै वहां कभी मनोहर गीत सुनता, कभी पर्याप्त रूपसे दिव्य वाद्योंका आनन्द लेता और कभी-कभी श्रेष्ठ अप्सराओंका नृत्य भी देख लेता था। भारत! इन समस्त सुख-सुविधाओंकी अवहेलना न करते हुए उन्हें स्वीकार करके भी मैं इनके असली रूपको जानकर-इनकी निःसारताको भलीभांति समझकर अधिकतर अस्त्रोंके अभ्यासमें ही संलग्न रहता था। ( गीत आदिमें कभी आसक्त नहीं हुआ )। अस्त्र-विद्याकी ओर मेरी ऐसी अभिरूचि होनेसे सहस्त्र नेत्रधारी भगवान् इन्द्र मुझपर बहुत संतुष्ट रहते थे। राजन्! इस प्रकार स्वर्गमें रहकर मेरा यह समय सुखपूर्वक बीतने लगा। धीरे-धीरे मैं अस्त्र-विद्यामें निपुण हो गया। मेरी विज्ञतापर सबको अधिक विश्वास था। एक दिन भगवान् इन्द्रने अपने दोनों हाथोंसे मेरे मस्तकका स्पर्श करते हुए मुझसे इस प्रकार कहा- 'अर्जुन! अब तम्हें युद्धमें देवता भी परास्त नहीं कर सकते। फिर मत्र्यलोकमें रहनेवाले बेचारे असंयमी मनुष्योंकी तो बात ही क्याहै ? 'तुम युद्धमें अप्रमेय, अजेय और अनुपम हो। संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण देवता और असुर भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। 'इतना कहते-कहते देवराजके शरीरमें रोमांच हो आया। तदनन्तर वे फिर बोले- 'वीर! अस्त्र-युद्धमें तुम्हारा सामना कर सके, ऐसा कोई योद्धा नहीं होगा। कुरूश्रेष्ठ! तुम सर्वदा सावधान रहते हों, प्रत्येक कार्यमें कुशल हो। जितेन्द्रिय, सत्यवादी और ब्राह्मणभक्त हो; तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोको ज्ञान है और तुम अद्भुत शौर्यसे सम्पन्न हो। पार्थ! तुमने पांच विधियोंसहित पंद्रह अस्त्र प्राप्त किये हैं, अतः इस भूतलपर तुम्हारे-जैसा शूर दूसरा कोई नहीं है। परंतप धनंजय! प्रयोग, उपसंहार, आवृति, प्रायश्चित[१] और प्रतिघात[२]-ये अस्त्रोंकी पांच विधियां हैं; तुम इन सबका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुके हो। अतः अब गुरूदक्षिणा देने का समय आ गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निर्दोष प्राणीका वध हो जाय, तो उसे पुनः संजीवित करने की विद्या को प्रायश्चित कहते हैं।
  2. त्रु को अस्त्र से पराभव को प्राप्त हुए अपने अस्त्र को पुनः शक्तिशाली बनाना प्रतिघात कहलाता है।

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