महाभारत वन पर्व अध्याय 172 श्लोक 24-35
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द्विसप्तत्यधिकशततम (172) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
उन डरी हुई निशाचरियोंके आभूषणोंके द्वारा उत्पन्न हुआ शब्द पर्वतोंपर पड़ती हुई शिलाओंके समान जान पड़ता था। तत्पश्चात् वे भयभीत हुई दैत्यनारियां अपने-अपने घरोंमें घुस गयीं। उनके महल सोनेके बने हुए थे और अनेक प्रकारके रत्नोंके उनकी विचित्र शोभा होती थी। वह उत्तम एवं अद्भुत नगर देवपुरीसे भी श्रेष्ठ दिखायी देता था। तब उसे देखकर मैंने मातलिसे पूछा- 'सारथे! देवतालोक ऐसा नगर क्यों नहीं बसाते हैं ? यह नगर तो मुझे इन्द्रपुरीसे भी बढ़कर दिखायी देता है। मातलि बोले-पार्थ! पूवकालमें यह नगर हमारे देवराजके ही अधिकारमें था। फिर निवातकवचने आकर देवताओंको यहांसे निकाल दिया। उन्होंने अत्यन्त तीव्र तपस्या करके पितामह ब्रह्माजीको प्रसन्न किया और उनसे अपने रहनेके लिये यही नगर मांग लिया। साथ ही यह भी मांगा कि 'हमें युद्धमें देवताओंसे भय न हों। तब इन्द्रने भगवान् ब्रह्माजीने इस प्रकार निवेदन किया-'प्रभो! अपने ( और हमारे) हितके लिये आप ही इन दानवोंका अन्त कीजिये'। भरतनन्दन! उनके ऐसा कहनेपर भगवान् ब्रह्माने कहा-'शत्रुदमन देवराज! ठसमें दैवका यही विधान है कि तुम्हीं दूसरा शरीर धारण करके इन दानवोंका अन्त कर सकोगे'। ( अर्जुन! तुम्हीं इन्द्रके दूसरे स्वरूप हो ) इन दैत्योंके वधके लिये ही इन्द्रने तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान किये है। आज जो ये दानव तुम्हारे हाथों मारे गये हैं, इन्हें देवता नहीं मार सकते थे। भारत! समयके फेरसे ही तुम इनका विनाश करनेके लिये यहां आ पहुंचे हो और तुमने जैसा दैवका विधान था, उसके अनुसार इनका संहार कर डाला है। पुरूषोतम! छेवराज इन्द्रने इन दानवोंके विनाशके उदेश्य से ही तुम्हें परम उतम अस्त्र-बलकी प्राप्ति करायी है। अर्जुन कहते हैं- महाराज ! इस प्रकार उन दानवों का संहार करके नगर में शान्ति स्थापित करने के पश्चात् में मातलि के साथ पुनः उस देवलोक को लौट आया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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