महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 21-42
त्रिसप्तत्यधिशततम (173) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
राजन् ! उस समय मैंने विद्या-बलका आश्रय लेकर महती बाण-वर्षाके द्वारा उनके अस्त्र-शस्त्रोंकी भारी बौछारको रोका और युद्ध-भूमिमें रथके विभिन्न पैंतरें बदलकर विचरते हुए उन सबको मोहमें डाल दिया। वे ऐसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे आपसमें ही लड़कर एक-दूसरे दानवोंको धराशायी करने लगे। इस प्रकार मूढचित हो आपसमें ही एक-दूसरेपर धावा करनेवाले उन दानवोंके सौ-सौ मस्तकोंको मैं अपने प्रज्वलित बाणोंद्वारा काट-काटकर गिराने लगा। वे दैत्य जब इस प्रकार मारे जाने लगे, तब पुनः अपने उस नगरमें ही घुस गये और दानवी मायाका सहारा ले नगरसहित आकाशमें उंचे उड़ गये। कुरूनन्दन ! तब मैंने बाणोंकी भारी बौछार करके दैत्योंका मार्ग रोक लिया और उनकी गति कुण्ठित कर दी। सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाला दैत्योंका वह आकाशचारी दिव्य नगर उनकी इच्छाके अनुसार चलने-वाला था और दैत्यलोग वरदान के प्रभाव से उसे सुखपूर्वक आकाश में धारण करते थे। वह दिव्यपुर कभी पृथ्वी पर अथवा पाताल में चला जाता, कभी उपर उड़ जाता, कभी तिरछी दिशाओं में चलता ओर कभी शीघ्र ही जल में डूब जाता था। परंतप ! इच्छानुसार विचरने वाला वह विशाल नगर अमरावती के ही तुल्य था; परंतु मैंने नाना प्रकारके अस्त्रोंद्वारा उसे सब ओरसे रोक लिया। नरश्रेष्ठ ! फिर दिव्यास्त्रोंसे अभिमंत्रित बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हुए मैंने दैत्योंसहित उस नगरको क्षत-विक्षत करना आरम्भ किया। राजन् ! मेरे चलाये हुए लोहनिर्मित बाण सीधे लक्ष्यतक पहुंचनेवाले थे। उनसे क्षतिग्रस्त हुआ वह दैत्य-नगर तहस-नहस होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। महाराज ! लोहेके बने हुए मेरे बाणोंका वेग वज्रके समान था। उनकी मार खाकर वे कालप्रेरित असुर चारों ओर चक्कर काटने लगते थे। तदनन्तर मातलि आकाशमें उंचे चढ़कर सूर्यके समान तेजस्वी रथद्वारा उन राक्षसोंके सामने गिरते हुएसे शीघ्र ही पृथ्वीपर उतारे। भरतनन्दन ! उस समय युद्धकी इच्छासे अमर्षमें भरे हुए उन दानवोंके साठ हजार रथमेरे साथ लड़नेके लिये डट गये। यह देख मैंने गृहपंगसे सुशोभित तीखे बाणोंद्वारा उन सबको घायल करना आरम्भ किया। परंतु वे दानव युद्धके लिये इस प्रकार मेरी ओर चढ़े आ रहे थे, मानो समुद्रकी लहरें उठ रही थी। तब मैंने यह सोचकर कि मानवोचित युद्धके द्वारा इनपर विजय नहीं पायी जा सकती, क्रमशः दिव्यास्त्रोंका प्रयोग आरम्भ किया। परंतु विचित्र युद्ध करनेवाले वे सहस्त्रों रथारूढ़ दानव धीरे-धीरे मेरे दिव्यास्त्रोंका भी निवारण करने लगे। वे महान् बलवान् तो थे ही, रथके विचित्र पैंतरे बदलकर रण-भूमिमें विचर रहे थे। उस युद्धके मैंदान में उनके सौ-सौ और हजार-हजारके झंड़ दिखायी देते थे। उनके मस्तकोंपर विचित्र मुकूट और पगड़ी देखी जाती थीं। उनके कवच ओर ध्वज भी विचित्र ही थे। वे अभ्दुत आभूषणसे विभूषित हो मेरे लिये मनोरंजनकीसी वस्तु बन गये थे। उस युद्धमें दिव्यास्त्रोंद्वारा अभिमंत्रित बाणोंकी वर्षा करके भी मैं उन्हें पीडि़त न कर सका; परंतु वे मुझे बहुत पीड़ा देने लगे। वे अस्त्रोंके ज्ञाता तथा युद्धकुशल थे, उनकी संख्या भी बहुत थी। उस महान् संग्राममें उन दानवोंसे पीडि़त होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया। तब मैंने एकाग्रचित हो मस्तक झुकाकर देवाधिदवे महात्मा रूद्रको प्रणाम किया और समस्त भूतोंका कल्याण हो' ऐसा कहकर उनके महान् पाशुपतास्त्र का प्रयोग किया। डसीको 'रौद्रास्त्र' भी कहते हैं। वह समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वह महान् एवं दिव्य पाशुपतास्त्र सम्पूर्ण विश्वके लिये वन्दनीय है। उसका प्रयोग करते ही मुझे एक दिव्य पुरूषका दर्शन हुआ, जिनके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नत्र तथा छः भुजाएं थीं। उनका स्वरूप बड़ा तेजस्वी था। उनके मस्तकके बाल सूर्यके समान प्रज्वलित हो गये।
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