महाभारत वन पर्व अध्याय 185 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पञ्चाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मणकी महिमाके विषयमें अत्रिमुनि तथा राजा पृथुकी प्रशंसा

मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन्! ब्राह्माणों और भी माहात्म्य मुझसे सुनो। पूर्वकालमें अनेक पुत्र राजर्षि पृथुने, जो यहां वैन्यके नामसे प्रसिद्ध थे, किसी समय अश्वमेघ यज्ञकी दीक्षा ली। उन दिनों महात्मा अत्रिने धन मांगनेकी इच्छासे उनके पास जानेका विचार किया, यह बात हमारे सुननेमें आयी है; परंतु ऐसा करनेसे उनको अपना धर्मात्मापन प्रकट करना पड़ता। इसलिये फिर उन्होंने धनके लिये अनुरोध नहीं किया। महातेजस्वी अत्रिने मन-ही-मन कुछ सोचविचारकर ( तपस्याके लिये ) वनमें ही जानेका निश्चय किया और अपनी धर्मपत्नी तथा पुत्रोंको बुलाकर इस प्रकार कहा। 'हमलोग वनमें रहकर ( तपद्वारा ) धर्मका बहुत अधिक उपद्रवशून्य फल पा सकती हैं। अतः शीघ्र वनमें चलनेका विचार तुम सब लोगोंको रूचिकर होना चाहिये; क्योंकि ग्राम्य-जीवनकी अपेक्षा वनमें रहना अधिक लाभप्रद है'। अत्रिकी पत्नी भी धर्मका ही अनुसरण करनेवाली थी। उसने यज्ञ-यागादिके रूपमें धर्मके ही विस्तारपर दृष्टि रखकर पतिको उत्तर दिया-'प्राणनाथा! आप धर्मात्मा राजा वैन्यके पास जाकर अधिक धनकी याचना कीजिये। 'वे राजर्षि इन दिनों यज्ञ कर रहे हैं, अतः इस अवसरपर यदि आप उनसे मांगेंगे तो वे आपको अधिक धन देंगे। ब्रह्मर्षे! व्हांसे प्रचुर धन लाकर भरण-पोषण करने योग्य इन पुत्रोंको बांट दीजिये; फिर इच्छानुसार वनको चलिये। धर्मज्ञ महात्माओंने यही परम धर्म बताया है'। अत्रि बोले-महाभागे! महात्मा गौतमने मुझसे कहा है कि 'वेनपुत्र राजा पृथु धर्म और अर्थको साधनमें संलग्न रहते हैं। वे सत्यव्रती हैं'। परंतु एक बात विचारणीय है। वहां उनके यज्ञमें जितने ब्राह्मण रहते हैं, वे सभी मुझसे द्वेष रखते हैं, यही बात गौतमने भी कही हैं। इसीलिये मैं वहां जानेका विचार नहीं कर रहा हूं। यदि मैं वहां जाकर धर्म, अर्थ और कामसे युक्त कल्याणमयी वाणी भी बोलूंगा तो वे उसे धर्म और अर्थके विपरीत ही बतायेंगे; निरर्थक सिद्ध करेंगे। तथापि महाप्राज्ञे! मैं वहां अवश्य जाउंगा, मुझे तुम्हारी बात ठीक जंचती है। राजा पृथु मुझे बहुत-सी गौएं तो देंगे ही, पर्याप्त धन भी देंगे। ऐसा कहकर महातपस्वी अत्रि शीघ्र ही राजा पृथुके यज्ञमें गये। यज्ञमण्डपमें पहुंचकर उन्होंने उस राजाका मांगलिक वचनोंद्वारा स्तवन किया और उनका समादर करते हुए इस प्रकार कहा। अत्रि बोले-राजन्! तुम इस भूतलके सर्वप्रथम राजा हो; अतः धन्य हो, सब प्रकारके ऐश्वर्यसे सम्पन्न हो। महर्षिगण तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नरेश धर्मका ज्ञाता नहीं है। उनकी यह बात सुनकर महातपस्वी गौतम मुनिने कुपित होकर कहा। गौतम बोले-अत्रे! फिर कभी ऐसी बात मुंहसे न निकालना । तुम्हारी बुद्धि एकाग्र नहीं है। यहां हमारे प्रथम प्रजापतिके रूपमें साक्षात् इन्द्र उपस्थित हैं। राजेन्द्र! तब अत्रिने भी गौतमको उत्तर देते हुए कहा-'मुने! ये पृथु ही विधाता हैं, ये ही प्रजापति इन्द्रके समान हैं। तुम्हीं मोहसे मोहित हो रहे हो; तुम्हें उत्तम बुद्धि नहीं प्राप्त है'। गौतम बोले-मैं नहीं मोहमें पड़ा हूं, तुम्हीं यहां आकर मोहित हो रहे हो। मै। खूब समझता हूं, तुम राजासे मिलाने की इच्छा लेकर ही भरी सभामें स्वार्थवश उनकी स्तुति कर रहे हो। उत्तम धर्मका तुम्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं हो। तुम धर्मकी प्रयोजन भी नहीं समझते हो। मेरी दृष्टिमें तुम मूढ़ हो, बालक हो; किसी विशेष कारणसे बूढ़े बने हुए हो अर्थात् केवल अवस्थासे बूढ़े हो। मुनियोंके सामने खड़े होकर जब वे दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थें, उस समय उन्हें देखकर जिनका यज्ञमें पहलेसे वरण हो चुका था, वे ब्राह्मण पूछने लगे-'ये दोनों कैसे लड़ रहे हैं ?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।