महाभारत वन पर्व अध्याय 191 श्लोक 1-22
एकनवत्यधिकशततम (191) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
भगवान् कल्कीके द्वारा सत्ययुगकी स्थापना और मार्कण्डेयजीका युधिष्ठिरके लिये धर्मोपदेश
मार्कण्डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर! उस समय चोर-ड़ाकुओं एवं म्लेच्छोंका विनाश करके भगवान् कल्की अश्वमेघ नामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंग और उसमें यह सारी पृथ्वी विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको दे ड़ालेंगे। उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन होंगे। वे ब्रह्माजीकी चलायी हुई मंगलमयी मर्यादाओंकी स्थापना करके ( तपस्याके लिये ) रमणीय वनमें प्रवेश करेंगे। फिर इस जगत्के निवासी मनुष्य उनके शील-स्वभावका अनुकरण करेंगे। इस प्रकार सत्ययुगमें ब्राह्मणोंद्वारा दस्युदलका विनाश हो जानेपर संसारका मंगल होगा। द्विजश्रेष्ठ कल्की सदा दस्युवधमें तत्पर रहकर समस्त भूतलपर विचरते रहेगे और अपने द्वारा जीते हुए देशोंमें काले मृगचर्म, शक्ति, त्रिशूल तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रोंकी स्थापना करते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा अपनी स्तुति सुनेंगे और स्वयं भी उन ब्राह्मणशिरामणियोंको यथोचित सम्मान देंगे। उस समय चोर और लुटेरे दर्दभरी वाणीमें 'हाय मैया' 'हाय बप्पा' और 'हाय बेटा' इत्यादि कहकर जोर-जोरसे चीत्कार करेंगे और उन सबका भगवान् कल्की विनाश कर ड़ालेंगे। भारत! दस्युओंके नष्ट हो जानेपर अधर्मका भी नाश हो जायगा और धर्मकी वृद्धि होने लगेगी। इस प्रकार सत्ययुग आ जानेपर सब मनुष्य सत्यकर्मपरायण होंगे। उस युगमें नये-नये बगीचे लगाये जायंगे। चौत्यवृक्षोंकी स्थापना होगी। पोखरों और धर्मशालाओंका निर्माण होगा। भांति-भांति की पोखरियां तैयार होंगी। कितने ही देवमन्दिर बनेंगे और नाना प्रकारके यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान होगा। ब्राह्मण साधु-स्वभावके होंगे। मुनिलोग तपस्यामें तत्पर रहेंगे। आश्रम पाखण्डियोंसे रहित होंगे और सारी प्रजा सत्यपरायण होगी। खेतोंमें बोये जानेवाले सब प्रकारके बीज अच्छी तरह उगेंगे। राजेन्द्र! सभी ऋतुओंमें सभी प्रकाके अनाज पैदा होंगे। सब लोग दान, व्रत और नियमों में लगे रहेंगे। ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक जपयज्ञमें तत्पर रहेंगे और धर्ममें ही उनकी रूचि होगी। क्षत्रियनरेश धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करेंगे। सत्ययुगके वैश्य सदा न्यायपूर्वक व्यापार करनेवाले होंगे। ब्राह्मण यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मोंमें तत्पर रहेंगे। क्षत्रिय बल-पराक्रममें अनुराग रखेंगे तथा शूद्र ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंकी सेवामें लगे रहेंगे। धर्मका यह स्वरूप सत्ययुगमें अक्षुण्ण रहेगा। त्रेता, द्वापर तथा कलियुगमें धर्मकी जैसी स्थिति रहेगी, उसका वर्णन तुमसे किया जा चुका हैं। पाण्डुनन्दन! तुम्हें सम्पूर्ण लोककी युग-संख्याका ज्ञान भी हो चुका हैं। राजन्! ऋषियोंद्वारा प्रशंसित तथा वायुदेवद्वारा वर्णित पुराणकी बातोंका स्मरण करके मैंने तुमसे यह भूतभविष्यका सारा वृतान्त बताया हैं। इस प्रकार चिरंजीवी होनेके कारण मैंने संसारके मार्गोंका अनेक बार दर्शन और अनुभव किया हैं, जिनका तुम्हारे समक्ष वर्णन कर दिया हैं। धर्ममर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयोंसहित यह मेरी एक बात और सुनो। धर्मविषयक संदेहका निवारण करनेके लिये मेरे वचनको ध्यान देकर सुनो। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने आपको सदा धर्ममें ही लगाये रखना चाहिये; क्योंकि धर्मात्मा मनुष्य इस लोक और परलोकमें भी बड़े सुखसे रहता है। निष्पाप नरेश! मेरी इस कल्याणमयी वाणीको समझो, जिसे मैं अभी तुम्हें सुना रहा हूं। युधिष्ठिर! तुम्हें कभी किसी ब्राह्मणका तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि यदि ब्राह्मण कुपित हो जाय और किसी बातकी प्रतिज्ञा कर ले, तो वह उस प्रतिज्ञाके अनुसार सम्पूर्ण लोकोंका विनाश कर सकता हैं। वैशम्पयानजी कहते हैं-जनमेजय! मार्कण्डेयजीकी यह बात सुनकर परम तेजस्वी और बुद्धिमान् कुरूकुलरत्न राजा युधिष्ठिर यह उत्तम वचन कहा- 'मुने! प्रजाकी रक्षा करते हुए किस धर्ममें स्थित रहना चाहिये। मेरा व्यवहार और बर्ताव कैसा हो, जिससे मैं स्वधर्मसे कभी च्युत न होउं ?'
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