महाभारत वन पर्व अध्याय 195 श्लोक 1-6
पच्च्वत्यधिकशततमो (195) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
राजा ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्त्र गौओं का दान मार्कण्डेयजी कहते हैं – युध्ष्ठिर। अब एक दूसरे क्षत्रिय नरेश का महत्तव सुनो- नहुष के पुत्र राजा ययाति जब पुरवासी मनुष्यों से घिरे हुए राजसिंहासन पर विराजमान थे, उन्हीं दिनों की बात है, एक ब्राह्मण गुरु-दक्षिणा देने के लिये भिक्षा मांगने की इच्छा से उनके पास आकर बोला ‘राजन् । मैं गुरु-दक्षिणा देने के लिये भिक्षा चाहता हूं, किंतु उसके साथ एक शर्त है’ । राजा ने कहा – भगवन् आप अपनी शर्त बताइये । ब्राह्मण बोला – भूपाल । इस संसार में प्राय: देखा जाता है कि जब किसी मनुष्यों से कोई वस्तु मांगी जाती है, तब वह उस मांगने वाले से अत्यन्त द्वेष करने लगता है। अत: राजन् । मैं आप से पुछता हूं कि आज आप मुझे मेरी प्रिय वस्तु कैसे दे सकते हैं । राजा ने कहा – दान लेने के अधिकारी ब्राह्मण देव । मैं कोई वस्तु देकर उसकी बार-बार चर्चा नहीं करता और यह प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूं कि मेरे पास कोर्इ ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपके मांगने योग्य न हो । जो वस्तु प्राप्त हो सकती है, उसे देने की प्रतिज्ञा कर लेने पर मैं उसे देकर ही अधिक सुखी होता हूं । मैं आपको आल रंग की एक हजार गौएं देता हूं; क्योंकि न्यायुत्त याचना करने वाला ब्रह्मण मुझे बहुत प्रिय है। मेरे मन में याचक पर कभी क्रोध नहीं आता है और न मैं कभी दिये हुए धन के लिये पचात्ता ही करता हूं । ऐसा कहकर राजा ने ब्राह्मण को एक हजार गौएं दे दीं और ब्राह्मण ने उन सहस्त्रों गौओं को ग्रहण कर लिया । इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेय समास्या पर्व में ययातिचरित विषयक एक सौ पंचानबेवां अध्याय पूरा हुआ ।
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