महाभारत वन पर्व अध्याय 198 श्लोक 1-9
अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
देवर्षि नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय । पाण्डुनन्दन युधिष्ठर ने मार्कण्डेयजी से पुन: प्रार्थना की – ‘मुने। क्षत्रिय नरेशों के महात्म्यका पुन: वर्णन कीजिये । तब मार्कण्डेयजी ने कहा- ‘धर्मराज । विश्वामित्र के पुत्र अष्टक के अश्वमेघ यज्ञ में सब राजा पधारे थे । ‘अष्टक के तीन भाई प्रतर्दन, वसुमना तथा उशीनर पुत्र शिवि भी उस यज्ञ में आये थे । यज्ञ समाप्त होने पर एक दिन अष्टक अपने भाइयों के साथ रथ पर आरुढ़ हो (स्वर्गकी और ) जा रहे थे। इसी समय रास्ते में देवर्षि नारदजी आते दिखायी दिये। तब उन तीनों ने उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘भगवन् आप भी रथ पर आ जाइये’ । ‘तब नारदजी ‘तथास्तु’ कहकर उस रथ पर बैठ गये। तदननतर उन में से एक ने देवर्षि नारद से कहा-‘भगवन् । मैं आपको प्रसन्न करके कुछ पूछना चाहता हूं’ । ‘देवर्षि ने कहा-‘ पूछो’ तब उसने इस प्रकार कहा-‘भगवन्। हम सब लोग दीर्घायु तथा सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सदा प्रसन्न रहते हैं। हम चारों को दीर्घकाल तक उपभोग में आने वाले स्वर्गलोक में जाना है, किंतु वहां से सर्व प्रथम कौन इस भुतल पर उतर आयेगा देवर्षि ने कहा-‘सबसे पहले अष्टक उतरेगा’ । ‘फिर – उसने पूछा-‘क्या कारण है कि अष्टक ही उतरेगा तब नारदजी ने कहा-‘एक दिन मैं अष्टक के घर ही ठहरा था। उस दिन अष्टक मुझे रथ पर बिठाकर भ्रमण के लिये ले जा रहे थे। मैंने रास्ते में देखा, भिन्न-भिन्न रंग की कई हजार गौएं पृथक-पृथक चर रही हैं। उन्हें देखकर मैंने अष्टक से पूछा-‘ये किसकी गौएं हैं । उन्हें उत्तर दिया-‘ये मेरी दान की हुई गौएं हैं। इस प्रकार से स्वयं अपने किये हुए दान का बखान करके आत्मश्रलाघा करते हैं। इसी लिये इन्हें स्वर्ग से पहले उतरना पड़ेगा। तत्पचात् उन लोगों ने पुन: प्रश्र किया ‘यदि हम शेष तीनों भाई स्वर्ग में जायं, तो सबसे पहले किसको उतरना पड़ेगा । ‘देवर्षि ने उत्तर दिया-‘प्रतर्दन को। इसमें क्या कारण है ऐसा प्रश्र होने पर देवर्षि ने उत्तर दिया-‘एक दिन मैं प्रतर्दन के घर भी ठहरा था। ये मुझे रथ से ले जा रहे थे। उस समय एक ब्राह्मण को उत्तर दिया ‘लौटने पर दे दूंगा। ब्राह्मण ने कहा-‘नहीं, तुरंत दे दीजिये। ‘अच्छा तो तुरंत ही लीजिये, यों कहकर इन्होंने रथ के दाहिने पार्श्व का घोड़ा खोलकर उसे दे दिया । ‘इतनेही में एक दूसरा ब्राह्मण आया। उसे भी घोड़े की ही आवश्यकता थी। जब उसने याचना की, तब राजा ने पूर्ववत् उससे भी यही कहा-‘लौटने पर दूंगा। परंतु उसके आग्रह करने पर उन्होंने रथ के वाम पार्श्रव का एक घोड़ा दिया। फिर वे आगे बढ़ गये । तदनन्तर एक घोड़ा मांगनेवाला दूसरा ब्राह्मण आया। उसने भी जल्दी ही मांगा। तब राजा ने उसे बायें धुरे का बोझ ढोने वाला अश्व खोल करके दे दिया । ‘तत्पचात् जब वे आगे बढ़े, तब फिर एक अश्व का इच्छुक ब्राह्मण आ पहुंचा। उसके मांगने पर राजा ने कहा-‘मैं शीघ्र ही अपने लक्ष्य तक पहुंचकर घोड़ा दे दूंगा। ब्राह्मण बोला ‘मुझे तुरंत दीजिये। तब उन्होंन ब्राह्मण को अश्व देकर स्वयं रथ का धुरा पकड़ लिया और कहा-‘ब्रह्मणों के लिये ऐसा करना सर्वथा उचित नहीं है’ ।
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