महाभारत वन पर्व अध्याय 198 श्लोक 21-27
अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
‘तब राजा ने ब्राह्मण को मनाते हुए कहा-‘भगवन्। भोजन कर लीजिये। ब्राह्मण ने दो घड़ी तक ऊपर की ओर देखने के पश्चात् शिबि से कहा । ‘तुम्हीं यह सब खा जाओ। शिबि ने उसी प्रकार मन को प्रसन्न रखते हुए ‘बहुत अच्छा‘ कहकर ब्राह्मण की आज्ञा स्वीकार की और उनका पूजन करके (सिर पर रखे हुए) ढक्कन को उघाड़कर वह सब खाने की इच्छा की । ‘तब ब्रह्मण ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा-‘राजन् । तुमने क्रोध को जीत लिया है। तुम्हारे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे तुम ब्राह्मण के लिये न दे सको। ऐसा कहकर ब्राह्मण ने भी उन-महाभाग नरेश का समादर किया । ‘राजा ने जब आंख उठाकर देखा, तब उनका पुत्र आगे खड़ा था। वह देवकुमार की भांति दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित था। उसके शरीर से पवित्र सुगन्ध निकल रही थी । ब्रह्मण देवता सब वस्तुओं को पूर्ववत् ठीक करके अन्तर्धान हो गये । साक्षात् विधाता ब्रह्मण के वेश में राजर्षि शिबि की परीक्षा लेने आये थे। उनके अन्तर्धान हो जाने पर राजा के मन्त्रियों ने उनसे पुछा-‘महाराज। आप क्या चाहते हैं जिसके लिये सब कुछ जानते हुए भी ऐसा दु:साहस पूर्ण कार्य किया है । शिबि बोले-मैं यश के लिये यह दान नहीं देता । धन के लिये अथवा भोग की लिप्सासे भी दान नहीं करता यह धर्मात्माओं का मार्ग है। पापी मनुष्य इस पर नहीं चल सकते। ऐसा समझकर ही मैं यह सब कुछ करता रहता हूं । श्रेष्ठ पुरुष सदा जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम मार्ग है। इसीलिये मेरी बद्धि सदा उस उत्तम पथ का ही आश्रय लेती है। यह है राजा शिबि की सर्व श्रेष्ठ महिमा, जिसे मैं (अच्छी तरह ) जानता हूं। इसलिये इन सब बातों का यथावत् वर्णन किया है । इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समास्या पर्व में क्षत्रियमाहात्म्य के प्रकरण में शिबिचरित्र विषयक एक सौ अटठानबेवां अध्याय पूरा हुआ ।
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