महाभारत वन पर्व अध्याय 210 श्लोक 1-14

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दशाधिकद्विशततम (210) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: दशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
विषयसेवन से हानि, सत्‍सगड़ से लाभ और ब्राह्मी विद्या का वर्णन

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजा युधिष्ठिर। ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर धर्मव्‍याध ने उसे जैसा उत्तर दिया था वह सब सुनाता हूं, सुनो । धर्म व्‍याध ने कहा- द्विज श्रेष्‍ठ । इन्द्रियों द्वारा किसी विषय का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये सबसे पहले मनुष्‍यों का मन प्रवृत होता है। उस विषय को प्राप्‍त कर लेने पर मन का उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है । जब किसी विषय में राग होता है, तब मनुष्‍य उसे पाने के लिये प्रयत्‍नशील होता है और उसके लिये बड़े-बड़ कार्यो का आरम्‍भ करता है। जब वे अभीष्‍ट रुप, गन्‍ध आदि विषय प्राप्‍त हो जाते हैं, तब वह उनका बारंबार सेवन करता है । उनके सेवन से विषयों के प्रति उत्‍कट राग प्रकट होता है। फिर उसकी प्रतिकूलता में द्वेष होता है; अनन्‍तर अभीष्‍ट वस्‍तु के प्रति लोभ का प्रादुर्भाव होता है। तत्‍पचात् वुद्धि पर मोह छा जाता है । इस प्रकार लोभ से आक्रान्‍त और राग-द्वेष से पीडि़त मनुष्‍य की बुद्धि धर्म में नहीं लगती। यदि वह धर्म करता भी है, तो कोई बहाना लेकर । जो किसी बहाने से धर्माचरण करता है, वह वास्‍तव में धर्म की आड़ लेकर धन चाहता है। द्विज श्रेष्‍ठ । जब धर्म के बहाने से धन की प्राप्ति होने लगती है, तब उसकी बुद्धि उसी में रम जाती है और उसके मन में पाप की इच्‍छा जाग उठती है । विप्रवर । जब उसे हितैषी मित्र तथा विद्धान पुरुष ऐसा करने से रोकते है, तब वह उसके समर्थन में अशास्‍त्रीय उत्तर देते हुए भी उसे वेद प्रतिपादित बढाता है । राग रुपी दोष के कारण उसके द्वारा तीन प्रकार के अधर्म होने लगते हैं- 1वह मन से पाप का चिन्‍तन करता है, 2 वाणी से पाप की बात बोलता है और 3 क्रिया द्वारा भी पाप का ही आचरण करता है। इस प्रकार अधर्म में लग जाने पर उसके सभी अच्‍छे गुण नष्‍ट हो जाते हैं ।।8-9।। वह अपने ही जैसे स्‍वभाव वाले पाप परायण मनुष्‍यों से मित्रता स्‍थापित कर लेता है। उस पाप से इस लोक में तो दु:ख होता ही है, परलोक में भी उसे बड़ी विपत्ति भोगनी पड़ती है । इस प्रकार मनुष्‍य पापात्‍मा हो जाता है। अब धर्म की प्राप्ति कैसे होती है, इसको मुझ से सुनो। जो दु:ख और सुख के विवेचना में कुशल है, वह अपनी बुद्धि से इन विषय सम्‍बन्‍धी दोषों को पहले ही समझ लेता है। अत: उनसे दूर हटकर श्रेष्‍ठ पुरुषों का सग्‍ड़ करता है और उस श्रेष्‍ठ सगड़ से उसकी बुद्धि धर्म में लग जाती है । ब्राह्मण बोला – धर्मव्‍याध । तुम धर्म के विषय में बड़ी मधुर और प्रिय बातें कह रहे हो। इन बातों को बताने वाला दूसरा कोई नहीं है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम कोई दिव्‍य प्रभाव से सम्‍पन्न महान् ऋषि ही हो । धर्मव्‍याध ने कहा– ब्रह्मन् । महाभाग ब्राह्मण और पितर ये सदा प्रथम भोजन के अधिकारी माने गये हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष को इस लोक में सब प्रकार से उनका प्रिय करना चाहिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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