महाभारत वन पर्व अध्याय 216 श्लोक 18-34

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षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद
कौशिक – धर्मव्‍याध संवाद का उपसंहार तथा कौशिक का अपने घर को प्रस्‍थान

मन्‍द बुद्धि मनुष्‍य ही अप्रिय वस्‍तु के संयोग और प्रिय वस्‍तु के वियोग में मानसिक दु:ख से दुखी होते हैं । सभी प्राणी तीनों गुणों के कार्यभुत विभिन्न वस्‍तु आदि से जिस प्रकार संयुक्‍त होते हैं, वैसे ही वियुक्‍त भी होते र‍हते हैं। अत: किसी एक का संयोग और किसी एक का वियोग वास्‍तव में शोक का कारण नहीं है । यदि किसी कार्य में अनिष्‍ट का संयोग दिखायी देता है, तो मनुष्‍य शीघ्र ही उससे निवृत हो जाता है और यदि आरम्‍भ होने से पहले ही उस अनिष्‍ट का पता लग जाता है, तो लोग उसके प्रतीकार का उपाय करने लगते हैं । केवल शोक करने से कुछ नहीं होता, संतापमात्र ही हाथ लगता है। जो ज्ञानतृप्‍त मनीषी मानव सुख और दु:ख दोनों का परित्‍याग कर देते हैं, वे ही सुखी होते हैं। मूढ़ मनुष्‍य असंतोषी होते हैं और ज्ञानवानों को संतोष प्राप्‍त होता है । असंतोष का अन्‍त नहीं है, अत: संतोष ही परम सुख है। जिन्‍होंने ज्ञान मार्ग को पार करके परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लिया है, वे कभी शोक में नहीं पड़ते हैं । मन को विषाद की और न जाने दे । विषाद उग्र विष है। वह क्रोध में भरे हुए सर्प की भांति विवेकहीन अज्ञानी मनुष्‍य को मार डालता है । पराक्रम का अवसर उपस्थित होने पर जिसे विषाद घेर लेता है, उस तेजो हीन पुरुष को कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता । किये जाने वाले कर्म का फल अवश्‍य दृष्टिगोचर होता है। केवल खिन्न होकर बैठ रहने से कोई अच्‍छा परिणाम हाथ नहीं लगता । अत: दु:ख से छूटने के उपाय को अवशय देखे। शोक और विषाद में न पड़कर आवश्‍यक कार्य आरम्‍भ कर दे । इस प्रकार प्रयत्‍न करने से मनुष्‍य निश्‍चय ही दु:ख से छूट जाता है और फिर किसी संकट या व्‍यसन में नहीं फंसता । संसार के सभी पदार्थ अनित्‍य हैं, ऐसा सोचकर जो बुद्धि से पार होकर परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त हो गये हैं, वे ज्ञानी महा पुरुष परमात्‍मा का साक्षात्‍कार करते हुए कभी शोक में नहीं पड़ते । विद्वन् । मैं अन्‍तकाल की प्रतीक्षा करता हूं । अत: कभी शोकमग्‍न नहीं होता। सत्‍पुरुषों में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण। उपर्युक्‍त विचारों का मनन करते रहने से मुझे कभी दु:ख या अनुत्‍साह नहीं होता । ब्राह्मण बोला – धर्मव्‍याध । आप ज्ञानी और बुद्धिमान हैं। आपकी बुद्धि विशाल है। आप धर्म के तत्‍व को जानते हैं और ज्ञानानन्‍द से तृप्‍त रहते हैं। अत: मैं आपके लिये शोक नहीं करता । अब मैं जाने के लिये आपकी अनु‍मति चाहता हूं। आपका कल्‍याण हो और धर्म सदा आपकी रक्षा करे। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ व्‍याध। आप धर्माचरण में कभी प्रमाद न करें । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर । कौशिक ब्राह्मण की बात सुनकर धर्मव्‍याध ने हाथ जोड़कर कहा-'बहुत अच्‍छा । अब आप अपने घर को पधारें। तदनन्‍तर विप्रवर कौशिक धर्मव्‍याध की परिक्रमा करके वहां से चल दिया । घर जाकर उस ब्राह्मण ने अपने माता-पिता की सब प्रकार की सेवा शुश्रूषा की और उन बूढ़े माता-पिता ने प्रसन्न होकर उसकी यथा योग्‍य प्रशंसा की । धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ तात युधिष्ठिर । तुमने जो प्रश्रव किया था, उसके अनुसार मैंने ये सब बाते कह सुनायीं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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