महाभारत वन पर्व अध्याय 217 श्लोक 1-17
सप्तदशाधिकद्विशततम (217) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय। यह धर्म युक्त शुभ कथा सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उन मार्कण्डेयमुनि से पुन: इस प्रकार प्रश्रव किया । युधिष्ठिर ने पूछा-मुने। पूर्वकाल में अग्नि देव ने किस कारण से जल में प्रवेश किया था और अग्नि के अदृश्य हो जाने पर महातेजस्वी अगडि़रा ऋषि ने किस प्रकार अग्नि होकर देवताओं के लिये हविष्य पहुंचाने का कार्य किया । भगवन् । जब अग्नि देव एक ही हैं, तब विभिन्न कर्मों में उनके अनेक रुप क्यों दिखायी देते हैं मैं यह सब कुछ जानना चाहता हूं । कुमार कार्किकेय की उत्पति कैसे हुई वे अग्नि के पुत्र कैसे हुए भगवान शंकर से तथा गंगा देवी और कृतिकाओं से उनका जन्म कैसे सम्भव हुआ । भृगु कुलतिलक महामुने। मैं आपके मुख से यह सब वृतान्त यथार्थ रुप से सुनना चाहता हूं, इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है । मार्कण्डेयजी ने कहा-राजन् । इस विषय में जानकर लोग उस प्राचीन इतिहास को दुहराया करते हैं, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार अग्रि देव कुपित हो तपस्या के लिये जल में प्रविष्ट हुए थे । कैसे स्वयं महर्षि अडिगरा ही भगवान अग्रि बन गये और अपनी प्रभा से अन्धकार का निवारण करते हुए जगत् को ताप देने लगे । महाबाहो । प्राचीन काल की बात है, महाभाग अडिगरा ऋषि अपने आश्रम में ही रहकर उत्तम तपस्या करने लगे। वे अग्रि से भी अधिक तेजस्वी होने के लिये यत्नशील थे। अपने उद्देश्य में सफल होकर वे सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने लगे । उन्हीं दिनों अग्रि देव भी तपस्या कर रहे थे। वे तेजस्वी होकर भी अडिगरा के तेज से संतप्त हो अत्यन्त मलिन पड़ गये। परंतु इसका कारण क्या है यह कुछ भी उनकी समझ में नहीं आया । तब भगवान अग्रि ने यह सोचा-‘हो न हो’ ब्रह्मजी ने इस जगत् के लिये किसी दूसरे अग्रि देवता का निर्माण कर लिया है’ । ‘जान पड़ता है’ तपस्या में लग जाने से मेरा अग्रित्व नष्ट हो गया। अब मैं पुन: किस प्रकार अग्रि हो सकता हूं यह विचार करते हुए उन्होंने देखा कि महामुनि अगडि़रा अग्रि की ही भांति प्रकाशित हो सम्पूर्ण जगत् को ताप दे रहे हैं । यह देख वे डरते-डरते धीरे से उनके पास गये। उस समय उन से अगडि़रा मुनि ने कहा-'देव । आप पुन: शीघ्र ही लोकभावना अग्रि के पद पर प्रतिष्ठित हो जाइये; क्योंकि तीनों लोकों तथा स्थावर-जगड़म प्राणियों में आप की प्रसिद्धि है । 'ब्रह्माजी ने आपको ही अन्धकार नाशक प्रथम अग्रि के रुप में उत्पन्न किया है । तिमिरपुच्च को दूर भगाने वाले देवता। आप शीघ्र ही अपना स्थान ग्रहण कीजिये’ । अग्रिदेव बोले – मुने । संसार में मेरी कीर्ति नष्ट हो गयी है। अब आप ही अग्रि के पद पर प्रतिष्ठित हैं। आपको ही लोग अग्रि समझेंगे, आपके सामने मुझे कोई अग्रि नहीं मानेगा । मैं अपना अग्रित्व आप में ही रख देता हूं, आप ही प्रथम अग्रि के पद पर प्रतिष्ठित होइये। मैं द्वितीय प्राजापत्य नामक अग्रि होऊगां । अगडि़रा ने कहा-अग्रि देव । आप प्रजा को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाला पुण्य कर्म (देवताओं के पास हविष्य पहुंचाने का कार्य) सम्पन्न कीजिये और स्वयं ही अन्धकार निवारक अग्रि पद पर प्रतिष्ठित होइये; साथ ही मुझे अपना पहला पुत्र स्वीकार कर लीजिये ।
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