महाभारत वन पर्व अध्याय 221 श्लोक 1-14

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एकविंशत्‍यधिकद्विशततम (221) अध्‍याय: वन पर्व (समस्या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
अग्रि स्‍वरुप तप एवं भानु (मनु) की संतति का वर्णन


मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर। पूर्वोक्त भरत नामक अग्रि ( जो शुयु के पौत्र और ऊर्जा के पुत्र हैं) गुरुतर नियमों से युक्त हैं। वे संतुष्‍ट होने पर पुष्टि प्रदान करते हैं, इसलिये उन का एक नाम ‘पुष्टिमति’ भी है। समस्‍त प्रजा का भरण पोषण करते हैं, इसलिये उन्‍हें भरत कहते हैं । ‘शिव’ नाम से प्रसिद्ध जो अग्रि हैं, वे शक्ति की आरा धना में लगे रहते हैं। दु:खातुर मनुष्‍यों का सदा ही शिव (कल्‍याण) करते हैं, इसलिये उन्‍हें ‘शिव’ कहते हैं । तप (पाच्चजन्‍य ) का तपस्‍या जनित फल (ऐश्वर्य) बढ़कर महान् हो गया है, यह देख उसे प्राप्‍त करने की इच्‍छा से मानो बुद्धिमान इन्‍द्र ही पुरंदर नाम से उनके पुत्र होकर प्रकट हुए । उन्‍हीं पाच्चजन्‍य से 'ऊष्‍मा' नामक अग्रि का प्रादुर्भाव हुआ। जो समस्‍त प्राणियों के शरीर में ऊष्‍मा (गर्मी) के द्वारा परिलक्षित होते हैं तथा तप के जो 'मनु' नामक अग्रिस्‍वरुप पुत्र हैं, उन्‍होंने 'प्राजापत्‍य' यज्ञ सम्‍पन्न कराया था । वेदों के पारग्ड़त विद्वान् 'शम्‍भु' आवसथ्‍य’ नामक अग्रि को देदीप्‍यमान तथा महान् तेज:पुज्ज से सम्‍पन्न बताते हैं । इस प्रकार जिन्‍हें यज्ञ में सोम की आहुति दी जाती है, ऐसे पांच पुत्रों को तपने पैदा किया। वे सब-के-सब सुवर्ण-सदृश कान्तिमान्, बल और तेज की प्राप्ति कराने वाले तथा देवताओं के लिये हविष्‍य पहुंचाने वाले हैं । महाभाग । अस्‍तकाल में परिश्रम से थके-मांदे सूर्य देव (अग्रि में प्रविष्‍ट होने के कारण ) अग्रि स्‍वरुप हो जाते हैं। भयंकर असुरों तथा नाना प्रकार के मरण धर्मा मनुष्‍यों को उत्‍पन्न करते हैं। ( उन्‍हें भी तप की संतति के अन्‍तर्गत माना गया है) । तप के मनु (प्रजापति) स्‍वरुप पुत्र भानु नामक अग्रि को अग्डि़रा ने भी ( अपना प्रभाव अर्पित करके ) नूतन जीवन प्रदान किया है। वेदों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मण भानु को ही ‘बृहभ्‍दानु’ कहते हैं । भानु की दो पत्‍निया हुई-सुप्रजा और बृहभ्‍दासा । इनमें बृहभ्‍दासा सूर्य की कन्‍या थी । इन दोनों ने छ: पुत्रों को जन्‍म दिया। इनके द्वारा जो संतानों की सृष्टि हुई, उसका वर्णन सुनो । जो दुर्बल प्राणियों को प्राण एवं बल प्रदान करते हैं, उन्‍हें ‘बलद’ नामक अग्रि बताया जाता है। ये भानु के प्रथम पुत्र हैं । जो शान्‍त प्राणियों में भयंकर ‘क्रोध’ बनकर प्रकट होते हैं, वे ‘मन्‍युमान्’ नामक अग्रि भानु के द्वितीय पुत्र हैं । यहां जिनके लिये दर्श तथा पौर्ण मास यागों में हविष्‍य समर्पण का विधान पाया जाता है, उन अग्रि का नाम ‘विष्‍णु’ है। वे ‘अग्डि़रा’ गोत्रीय माने गये हैं। उन्‍हीं का दूसरा नाम ‘धृतिमान्’ अग्रि है ( ये भानु के तीसरे पुत्र हैं । इन्‍द्र सहित जिनके लिये आग्रयण (नूतन अन्न द्वारा सम्‍पन्न होने वाले यज्ञ) कर्म में हविष्‍य –अर्पण का विधान है, वे ‘ आग्रयण’ नामक अग्रि भानु के ही (चौथे) पुत्र हैं । चातुर्मास्‍य यज्ञों में नित्‍य विहित आग्‍नेय आदि आठ हविष्‍यों के जो उभ्‍दवस्‍थान हैं, उनका नाम ‘अग्रह’ है। ( वे ही पांचवें पुत्र हैं) ‘स्‍तुभ’ नामक अग्रि भी भानु के ही पुत्र हैं। पहले कहे हुए चार पुत्रों के साथ जो ये अग्रह (वैश्रवदेव) और स्‍तुभ हैं, इन्‍हें मिलाकर भानु के छ: पुत्र हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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