महाभारत वन पर्व अध्याय 224 श्लोक 1-17

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चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम (224) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
इन्‍द्र का देव सेना के साथ ब्रह्मजी के पास तथा ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना, अग्रि का मोह और वनगमन

कन्‍या बोली – देवेन्‍द्र । मैं प्रजापति की पुत्री हूं । मेरा नाम देव सेना है। मेरी बहिन का नाम दैत्‍य सेना है, जिसे केशी ने पहले ही हर लिया था । हम दोनों बहिनें अपनी सखियों के साथ प्रजापति की आज्ञा लेकर सदा क्रीडाविहार केक लिये इस मानस पर्वत पर आया करती थीं । पाकशासन् । महान् असुर केशी प्रतिदिन यहां आकर हम दोनों को हर ले जाने के लिये फुसलाया करता था । दैत्‍यसेना इसे चाहती थी । परंतु मेरा इस पर प्रेम नहीं था । अत: दैत्‍यसेना को तो यह हर ले गया, परंतु मैं आपके पराक्रमी से बच गयी। भगवन् । देवेन्‍द्र । अब मैं आपके आदेश के अनुसार किसी दुर्जय वीर को अपना पति बनाना चाहती हूं । इन्‍द्र बोले – शुभे । तुम मेरी मौसेरी बहिन हो । मेरी माता भी दक्ष ही पुत्री हैं। मेरी इच्‍छा है कि तुम स्‍वयं ही अपने बल का परिचय दो । कन्‍या बोली- महाबाहो । मैं तो अबला हूं । पिताजी के वरदान से मेरे भावी पति बलवान् तथा देवदानववन्दित होंगे । इन्‍द्र ने पूछा-देवि। तुम्‍हारे पति का बल कैसा होगा अनिन्दिते । यह बात मैं तुम्‍हारे ही मुंह से सुनना चाहता हूं । कन्‍या बोली –देवराज। जो देवता, दानव, यक्ष, किन्नर, नाग, राक्षस तथा दुष्‍ट दैत्‍यों को जीतने वाला हो; जिसका पराक्रम महान् और बल दैत्‍यों को जीतने वाला हो; जिसका पराक्रम महान् और बल असाधारण हो तथा जो तुम्‍हारे साथ रहकर समस्‍त प्राणियों पर विजय प्राप्‍त कर सके, वह ब्राह्मणहितैषी तथा अपने यश की वृद्धि करने वाला वीर पुरुष मेरा पति होगा । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं – राजन् । देव सेना की बात सुनकर इन्‍द्र अत्‍यन्‍त दुखी हो सोचने लगे ‘इस देवी को जैसा यह बता रही है, वैसा पति मिलना सम्‍भव नहीं जान पड़ता । तदनन्‍तर सूर्य के समान तेजस्‍वी इन्‍द्र ने देखा, सूर्य उदयाचल पर आ गये हैं। महाभाग चन्‍द्रमा भी सूर्य में ही प्रवेश कर रहे हैं । अमावस्‍या आरम्‍भ हो गयी थी । उस रौद्र ( भयंकर ) मुहूर्त में ही उदयगिरि के शिखर पर उन्‍हें देवासुर-संग्राम का लक्षण दिखायी दिया । ऐश्वर्य शाली इन्‍द्र ने देखा, पूर्व संध्‍या ( प्रभात ) का समय है, प्राचीन के आकाश में लाल रंग के घने बादल घिर आये हैं और समुद्र का जल भी लाल ही दृष्टिगोचर हो रहा है । भृगु तथा अग्डि़रा गोत्र के ऋषियों द्वारा पृथक-पृथक मन्‍त्र पढ़कर हवन किये हुए हविष्‍य को ग्रहण करके अग्रि देव भी सूर्य में प्रवेश करते हैं । उस समय भगवान सूर्य के निकट चौबीसवां पर्व उपस्थित था अर्थात् पहले जिस अमावस्‍या में देवासुर-संग्राम हुआ था उससे पूरे एक वर्ष के बाद पुन: वैसा अवसर आया था । धर्म की अर्थात् होम और संध्‍या की वेला में वह रौद्र मुहूर्त उपस्थित था और चन्‍द्रमा सूर्य की राशि में स्थित हो गये थे । इस प्रकार चन्‍द्रमा और सूर्य की एकता ( एक राशि पर स्थिति ) तथा रौद्र मुहूर्त का संयोग देखकर इन्‍द्र मन ही मन इस प्रकार चिन्‍तन करने लगे । ‘अहो इस समय चन्‍द्रमा और सूर्य पर यह भयंकर घेरा दिखायी दे रहा है । इससे सूचित होता है कि रात बीतते-बीतते भारी युद्ध छिड़ जायगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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