महाभारत वन पर्व अध्याय 236 श्लोक 27-31
षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )
यदि प्राप्त हुए धनका यथावत् वितरण न किया जायगा, तो वह कच्चे घड़ेमें रखे हुए जलकी भॉंति चूकर व्यर्थ नष्ट क्यों न होगा ? यह सोचकर उसकी रक्षा करना ही कर्तव्य है यदि यथायोग्य विभाजनके द्वारा धन की रक्षा न की जायेगी तो वह सैकड़ों प्रकारसे बिखर जायगा । जगत् में किये हुए कर्म फलका नाश नहीं होता – यह निशचित है । ( इससे यही सिद्ध होता है कि उसका यथायोग्य वितरण कर देना ही उचित है ) । ‘देखो अर्जुनमें कितनी शक्ति है ! वे वनसे भी इन्द्र-लोक को चले गये और वहांसे चारो प्रकार के दिव्यास्त्र सीखकर पुन: इस लोकमें लौट आये । ‘सदेह स्वर्गमें जाकर कौन मनुष्य इस संसारमें पुन: लौटना चाहेगा । अर्जुनके पुन: मृर्त्यलोकमें लौटनेका कारण इसके सिवा दूसरा नहीं है कि ये बहुसंख्यक कौरव कालके वशीभूत हो मृत्युके निकट पहुंच गये हैं और अर्जुन इनकी इस अवस्था को अच्छी तरह देख रहे हैं । ‘सव्यसाची अर्जुन अद्वितीय धनुर्धर हैं । उनके उस गाण्डीव धनुषका वेग भी बडा भयानक है और अब तो अर्जुन को वे दिव्यास्त्र भी प्राप्त हो गये हैं । इस समय इन तीनोंके सम्मिलित तेजको यहां कौन सह सकता है ?’ । एकान्त में कही हुई राजा धृतराष्ट्रकी उपर्यक्त सारी बातें सुनकर सुबलपुत्र शकुनिने दुर्योधन और कर्णके पास जाकर ज्योंकी त्यों कह सुनायी । इससे मन्दमति दुर्योधन उदास एवं चिन्तित हो गया ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रा पर्वमें धृतराष्ट्रके खेदयुक्त वचन से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ छत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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