महाभारत वन पर्व अध्याय 238 श्लोक 1-19
अष्टात्रिंशदधिकद्विशततम (238) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कर्णकी बात सुनकर राजा दुर्योधनको पहले तो बडी प्रसन्नता हुई फिर वह दीन होकर इस प्रकार बोला- ‘कर्ण ! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सब मेरे मनमें भी है । परन्तु जहां पाण्डव रहते हैं, वहां जानेके लिये मैं पिताजीकी आज्ञा नही पा सकूंगा । ‘महाराज धृतराष्ट्र उन वीर पाण्डवोंके लिये विलाप करते रहते है । वे तप: शक्तिके संयोगसे पाण्डवोंको हमसे अधिक बलशाली भी मानते हैं । ‘ अथवा यदि उन्हें इस बात का पता लग जाये कि हमलोग वहां जाकर क्या करना चाहते हैं तब वे भावी संकटसे हमारी रक्षाके लिये ही हमें वहां जाने कि अनुमति नहीं देंगें । ‘महातेजस्वी कर्ण ! ( पिताजीको यह समझते देर नहीं लगेगी कि ) वन में रहने वाले पाण्डवोंको उखाड़ फेंकनेके अतिरिक्त हमलोगोंके दैत्य वनमें जानेका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है । ‘जुएका अवसर उपस्थित होनेपर विदुरजीने मुझसे, तुम से तथा ( मामा ) शकुनिसे जैसी बातें कही थी, उन्हें तो तुम जानते ही हो । ‘उन सब बातोंपर तथा और भी पाण्डवोंके लिये जो विलाप किया गया है, उसपर विचार करके मैं किसी निश्चयपर नहीं पहुंच पाता कि दैत्यवनमें चलूं या नहीं चलूं । ‘यदि मैं भीमसेन तथा अर्जुनको द्रौपदीके साथ वनमें क्लेश उठाते देख सकूं, तो मुझे भी बडी प्रसन्नता होगी । ‘पाण्डवोंको वल्कल वस्त्र पहनें और मृगचर्म ओढ़ देखकर मुझे जितनी खुशी होगी उतनी इस समुची पृथ्वीका राज्य पाकर भी नहीं होगी । ‘कर्ण ! मैं द्रुपद कुमारी कृष्णाको वनमें गेरूए कपडे पहने देखूं, इससे बढ़कर प्रसन्नताकी बात मेरे लिये और क्या हो सकती है । ‘यदि धर्मराज युधिष्ठिर तथा पाण्डु नन्दन भीमसेन मुझे परमोत्कृष्ट राजलक्ष्मीसे सम्पन्न देख लें, तो मेरा जीवन सफल हो जाय ।‘परन्तु मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाई नहीं देता, जिससे हम लोग दैत्यवनमें जा सके अथवा महाराज मुझे वहां जानेकी आज्ञा दे दें । ‘अत: तुम मामा शकुनि तथा भाई दु:शासनके साथ सलाह करके कोई अच्छा-सा उपाय ढ़ंढ निकालो जिससे हम लोग दैतवनचल सकें । ‘ मैं भी आज ही जाने या नहीं जाने के विषय में कोई निश्चय करके कल सबेरा होते ही महाराज के पास जाऊंगा ।‘जब मैं वहां बैठ जाऊं और कुरूश्रेष्ठ भीष्मजी भी उपस्थित रहें, उस समय जो उपाय दिखायी दे उसे तुम और शकुनि दोनों बतलाना । ‘पितामह भीष्मजीकी तथा महाराजकी वहां जानेके विषयमें क्या सम्मति है; ये सुन लेने पर पितामहको अनुनय विनयसे राजी करके ( उनकी आज्ञा लेकर ही ) दैत्यवनमें चलनेका निश्चय करुँगा । ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही हो’ यह कहकर सब अपने-अपने विश्रामगृहमें चले गये जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब कर्ण राजा दुर्योधनके पास गया । वहां कर्णनें हंसकर दुर्योधनसे कहा-जनेश्वर ! मुझे जो उपाय सूझा है, उसे बताता हूँ, सनो । ‘नरेश्वर ! गौओंके रहनेके सभी स्थान इस समय दैत्यवन में ही हैं और वहां आप के पधारनेकी सदा प्रतीक्षा की जाती है, अत: घोष यात्रा ( उन स्थानों को देखने ) के बहाने वहां नि:सन्देह चल सकेगें ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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