महाभारत वन पर्व अध्याय 246 श्लोक 1-22

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षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (246) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिरका संवाद और दुर्योधनका छुटकारा


वैशम्‍पायनजी कहते हैं–जनमेजय ! तदनन्‍तर परम क्रान्ति मान महाधनुर्धर अर्जुनने गन्‍धर्वोकी सेनाके बीच चित्रसेनसे हंसते हुए पूंछा-‘वीर ! कौरवोंको बन्‍दी बनानेमें तुम्‍हारा क्‍या उदेश्‍य था ? स्त्रियोंसहित दुर्योधनको तुमने किसलिये कैद किया ? चित्रसेनने कहा – धनंजय ! देवराज इन्‍द्रको स्‍वर्गमें बैठे-बैठे ही दुरात्‍मा दुर्योधन पापी कर्णका यह अभिप्राय मालूम हो गया था कि ये आप लोगोंको वनमें रहकर अनाथकी भॉंति क्‍लेश उठाते और विषम परिस्थितिमें पड़कर अस्थिरभावसे रहते हुए जानकर भी उस अवस्‍थामें आपको देखने और दुखी करनेका निश्‍चय कर चुके हैं । ये स्‍वयं सम ( सुखपूर्ण ) अवस्‍थामें स्थित है, फिर भी आप पाण्‍डवों तथा यस्विनी द्रौपदीकी हंसी उडानेके लिये वनमें आये हैं । इस प्रकार इनकी ( आपलोगोंका अनिष्‍ट करनेकी ) इच्‍छा जानकर देवेश्‍वर इन्‍द्रने मुझसे इस प्रकार कहा । ‘चित्रसेन ! तुम जाओ और दुर्योधनको उसके मंन्त्रियों सहित बान्‍धकर यहां ले आओ । युद्धमें तुम्‍हें भाइयोंसहित अर्जुनकी रक्षा करनी चाहिये; क्‍योंकि पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन तुम्‍हारे प्रिय सखा तथा शिष्‍य हैं’ । वहांसे देवराजकी यह आज्ञा मानकर मैं तुरन्‍त यहां चला आया । यह दुरात्‍मा दुर्योधन मेरी कैदमें आ गया है; अत: अब मै देवलोकको जाऊंगा और पाकशासन इन्‍द्रकी आज्ञासे इस दुरात्‍मा को भी वहीं ले जाऊंगा ।अर्जुन बोले–चित्रसेन ! दुर्योधन हम लोगोंका भाई है यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो, तो धर्मराजके आदेशसे इसे छोड़ दो । चित्रसेनने कहा-धनंजय ! यह पापी सदा राज्‍य सुख भोगनेके कारण हर्षसे मतवाला हो उठा है; अत: इसे छोड़ना उचित नही है । इसने धर्मराज युधिष्ठिर तथा द्रौपदीको धोखा दिया है । कुन्‍तीनन्‍दन धर्मराज युधिष्ठिर इसके इस कुटिल अभिप्रायको नही जानते हैं; अत: यह सब सुनकर हमारी जैसी इच्‍छा हो वैसा करो । वैशम्‍पायनजी कहते हैं–राजन् ! तदनन्‍तर वे सब लोग राजा युधिष्ठिरके पास गये वहां जाकर गन्‍धर्वोने दुर्योधनकी सारी कुचेष्‍टा कह सुनायी । गन्‍धर्वोका यह कथन सुनकर अजातशत्रु यधिष्ठिरने उस समय समस्‍त कौरवोंको बन्‍धनसे छुडा दिया और गन्‍धर्वोकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । आप सब लोग बलबान और समृद्धिशाली है । आपने मंत्रियों तथा जाति भाइयों सहित इस दुराचारी दुर्योधनका वध नहीं किया, यह बड़े सौभाग्‍यकी बात है । ‘तात ! आकाशचारी गानधर्वोने यह मेरा बहुत बडा उपकार किया कि इस दुरात्‍माको छोड दिया इसलिये मेरे कुलका अपमान नहीं हुआ । ‘गन्‍धर्वो ! अपनी अभीष्‍ट सेवाके लिये हमें आज्ञा दीजिये । हम सब लोग आपके दर्शनसे बहुत प्रसन्‍न हैं । अपनी समस्‍त मनोवांच्छित वस्‍तुओंको प्राप्‍त करनेके पश्‍चात प्रस्‍थान कीजियेगा । बुद्धिमान पाण्‍डु पुत्र युधिष्ठिरसे आज्ञा लेकर चित्रसेन आदि सब गन्‍धर्व अप्‍सराओंके साथ प्रसन्‍नतापूर्वक वहांसे विदा हुए । गन्‍धर्वो सहित चित्रसेनने देवलोकमें पहुंचकर देवराज इन्‍द्रके समक्ष सब समाचार निवेदन किया । युद्धमें कौरवों द्वारा जो गन्‍धर्व मारे गये थे, उन सबको देवराज इन्‍द्रने दिव्‍य अमृत की वर्षा करके जिला दिया । इस प्रकार सब भाई बन्‍धुओं एवं राजकुलकी महिलाओंको गन्‍धर्वोसे छुडाकर एवं दुष्‍कर पराक्रम करके प्रसन्‍न हुए महारथी महामना पाण्‍डव स्‍त्री-बालकोंसहित कौरवोंद्वारा पूजित एवं प्रशंसित हो यज्ञमण्‍डपमें प्रज्‍ज्‍वलित अग्नियोंके समान देदीप्‍यमान हो रहे थे । तदनन्‍तर बन्‍धनमुक्‍त हुए दुर्योधनसे भाइयों सहित युधिष्ठिरने यह बात कही- ‘तात ! फिर कभी ऐसा द:साहस न करना । भारत ! दु:साहस करने वाले मनुष्‍य कभी सुखी नहीं होते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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