महाभारत वन पर्व अध्याय 248 श्लोक 1-16
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अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततम (248) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )
दुर्योधन बोला–राधानन्दन ! तुम सब बातें जानते नहीं हो, इसीसे मैं तुम्हारे इस कथन को बुरा नहीं मानता । तुम समझते हो कि मैंने अपने अश्रुभूत गन्धर्वो की अपने ही पराक्रमसे हराया है; परंन्तु ऐसी बात नहीं है । महाबाहो ! मेरे भाइयोंने मेरे साथ रहकर गन्धर्वोके साथ बहुत देरतक युद्ध किया और उसमें दोनों पक्षके बहुत-से सैनिक मारे गये । परंतु जब मायाके कारण अधिक शक्तिशाली शूरवीर गन्धर्व आकाशमें खडे होकर,युद्ध करने लगे, तब उनके साथ हमलोगोंका युद्ध समान स्थितिमें नहीं रह सका । युद्धमें हमारी पराजय हुई और हम सेवक, सचिव, पुत्र, स्त्री, सेना तथा सवारियोंसहित बंदी बना लिये गये । फिर गन्धर्व हमें ऊँचे आकाशमार्गसे ले चले । उस समय हमलोग अत्यन्त दुखी हो रहे थे । तदनन्तर हमारे कुछ सैनिकों और महारथी मंन्त्रियोंने अत्यन्त दीन हो शरण दाता पाण्डवोंके पास जाकर कहा - ‘कुन्तीकुमारो ! ये धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन अपने भाइयों, मन्त्रियों तथा स्त्रियोंके साथ यहां आये थे । इन्हें गन्धर्वगण आकाशमार्गसे हरकर लिये जाते हैं । ‘आपलोगोंका कल्याण हो । रानियोंसहित महाराजको छुड़ाइये । कहीं ऐसा न हो कि कुरूकुलकी स्त्रियोंका तिस्कार हो जाय’ । उनके ऐसा कहनेपर ज्येष्ठ पाण्डुपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अन्य सब पाण्डवोंको राजी करके हम सब लोगोंको छुडानेके लिये आज्ञा दी । तदनन्तर पुरूषसिंह महारथी पाण्डव उस स्थान पर आकर समर्थ होते हुए भी गन्धर्वोसे सान्त्वनापूर्ण शब्दोमें ( हमें छोड़ देनेके लिये ) याचना करने लगे । उनके समझाने-बुझाने पर भी जब अकाशचारी वीर गन्धर्व हमें न छोड़ सके और बादलों की भॉंति गरजने लगे,तब अर्जुन, भीम उत्कट बलशाली नकुल सहदेवने उन असंख्य गन्धर्वोकी ओर लक्ष्य करके बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी । फिर तो सारे गन्धर्व रणभूमि छोड़कर आकाशमें उड़ गये मन-ही-मन आनन्दका अनुभव करते हुए हम दीन-दु:खियोंको अपनी ओर घसीटने लगे । इसी समय हमने देखा, चारो ओर बाणोंका जाल-सा बन गया है और उससे वेष्टित हो अर्जुन अलौकिक अस्त्रोंकी वर्षा कर रहे हैं । पाण्डुनन्दन अर्जुनने अपने तीखे बाणोंसे समस्त दिशाओं को अच्छादित कर दिया है, ये देखकर उनके सखा चित्रसेनने अपने आपको उनके सामने प्रकट कर दिया ।। फिर तो चित्रसेन और अर्जुन दोनों एक-दूसरेसे मिले और कुशल मंगल तथा स्वास्थ्यका समाचार पूछने लगे । दोनोंने एक दूसरेसे मिलकर अपना कवच उतार दिया । फिर समस्त वीर गन्धर्व पाण्डवोंके साथ मिलकर एक हो गये । तत्पश्चात चित्रसेन और धनंजयने एक दूसरेका आदर-सत्कार किया ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनवाक्यविषयक दो सौ अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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