महाभारत वन पर्व अध्याय 252 श्लोक 41-52
द्विपच्चाशदधिकद्विशततम (252) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )
‘शत्रुघाती नरेश ! उठो, क्यों सो रहे हो ? किसलिये शोक करते हो १ अपने पराक्रमसे शत्रुओंको संतप्त करके अब मृत्युकी इच्छा क्यों करते हो ? ‘अथवा यदि तुम्हें अर्जुनका पराक्रम देखकर भय हो गया हो, तो मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मैं युद्धमें अर्जुनको अवश्य मार डालूंगा । ‘महाराज ! मैं धनुष छूकर सचाईके साथ यह शपथ ग्रहण करता हूँ कि तेरहवां वर्ष व्यतीत होते ही पाण्डवोंको तुम्हारे वशमें ला दूंगा’ । कर्णके ऐसा कहनेपर और इन दु:शासन आदि भाइयोंके प्रणामपूर्वक अनुनय-विनय करनेपर दैत्योंके वचनोंका स्मरण करके दुर्योधन अपने आसन से उठ खडा हुआ । दैत्योंके पूर्वोक्त कथनों को याद करके नरश्रेष्ठ दुर्योधनने पाण्डवोंसे युद्ध करनेका पक्का विचार कर लिया और पैदल सैनिकोंसे युक्त अपनी चतुरंगिणी सेनाको तैयार होनेकी आज्ञा दी । राजन् ! वह विशाल वाहिनी गगांके प्रवाहके समान चलने लगी । श्वेत छत्र, पताका,शुभ्र चंवर, रथ, हाथी और पैदल योद्धाओं से भरी हुई वह कौरव-सेना शरत् कालमें कुछ कुछ व्यक्त शारदीय सुषमासे सुशोभित आकाशकी भॉंति शोभा पा रही थी । धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन सम्राट् की भॉंति श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके मुखसे विजय सूचक आशीर्वादोंके साथ अपनी स्तुति सुनता तथा लोगोंकी प्रणमाज्जलियोंको ग्रहण करता हुआ उत्कृष्ट शोभासे प्रकाशित हो आगे–आगे चला । राजेन्द्र ! कर्ण तथा द्यूतकुशल शकुनिके साथ दु:शासन आदि सब भाई, भूरिश्रवा, सोमदत्त तथा महाराज बाहृीक – ये सभी कुरूकुलरत्न नाना प्रकारके रथों, गजराजों तथा घोडों पर बैठकर राजसिंह दुर्योधनके पीछे-पीछे चल रहे थे । जनमेजय ! थोडे़ समयमें उन सबने अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें प्रवेश किया ।
इस प्रकार श्रीमहाभारतवनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनका नगरमें प्रवेशविषयक दो सौ बावनवां अध्याय पूरा हुआ ।
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