महाभारत वन पर्व अध्याय 256 श्लोक 1-23

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षट्पच्‍चाशदधिकद्विशततम (256) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: षट्पच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधनके यज्ञका आरम्‍भ एवं समाप्ति


वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्‍तर समस्‍त शिल्पियों, श्रेष्‍ठ मंन्त्रियों तथा परम बुद्धिमान् विदुरजीने दुर्योधनको सूचना दी- ‘भारत ! क्रतुश्रेष्‍ठ वैष्‍णवयज्ञकी सारी सामग्री जुट गयी है। यज्ञका नियत समय भी आ पहुँचा है और सोनेका बहुमूल्‍य हल भी पूर्णरूपसे बन गया है’ । राजन् यह सनुकर नृपश्रेष्‍ठ दुर्योधनने उस क्रतुराजको प्रारम्‍भ करने की आज्ञा दी । फिर तो उत्‍तम संस्‍कारसे युक्‍त और प्रचुर धन्‍य धान्‍यसे सम्‍पन्‍त्र वह वैष्‍णवयज्ञ आरम्‍भ हुआ । गान्‍धारीनन्‍दन दुर्योधनने शास्‍त्रकी आज्ञाके अनुसार विधिपूर्वक उस यज्ञकी दीक्षा ली । धृतराष्‍ट्र, महायशस्‍वी विदुर, भीष्‍म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा यशस्विनी गान्‍धारीको इस यज्ञसे बडी प्रसन्‍त्रता हुई । राजेन्‍द्र ! तदनन्‍तर समस्‍त भूपालों तथा ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करनेके लिये बहुत-से शीघ्रगामी दूत भेजे । दूतगण तेज चलनेवाले वाहनोंपर सवार हो जिन्‍हें जैसी आज्ञा मिली थी, उसके अनुसार कर्तव्‍यपालनके लिये प्रस्थित हुए । उन्‍हींमेंसे एक जाते हुए दूतसे दु:शासनने कहा - ‘तुम शीघ्रतापूर्वक द्वैतवनमें जाओ और पापात्‍मा पाण्‍डवों तथा उस वनमें रहने वाले ब्राह्मणोंको यथोचित रीतिसे निमन्‍त्रण दे आओ’। उस दूतने समस्‍त पाण्‍डवोंके पास जाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा –‘महाराज ! कुरू कुलके श्रेष्‍ठ पुरूष नृपति शिरोमणि दुर्योधन अपने पराक्रमसे अतुल धनराशि प्राप्‍त कर एक यज्ञकर रहे हैं । उसमें ( विभिन्‍त्र स्‍थानोंसे ) बहुतसे राजा और ब्राह्मण पधार रहे हैं । ‘राजन् ! महामना दु:शासने मुझे आपके पास भेजा है । जननायक महाराज दुर्योधन आपलोगोंको उस यज्ञमें बुला रहे हैं । आपलोग चलकर राजाके मनोवाच्छित उस यज्ञका दर्शन कीजिये’। दूतका यह कथन सुनकर राजाओंमें सिंहके समान महाराज युधिष्ठिरने इस प्रकार उत्‍तर दिया –सौभाग्‍यकी बात है कि पूर्वजोंकी कीर्ति बढाने वाले राजा दुर्योधन श्रेष्‍ठ यज्ञके द्वारा भगवानका यजन कर रहे हैं । ‘हम भी उस यज्ञमें चलते, परंतु इस समय यह किसी तरह सम्‍भव नहीं है । हमें तेरह वर्षतक वनमें रहने की अपनी प्रतिज्ञाका पालन करना है’। धर्मराजकी यह बात सुनकर भीमसेनने दूरसे इस प्रकार कहा – ‘दूत ! तुम राजा दुर्योधनसे जाकर यह कह देना कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर तेरह वर्ष बीतनेके पश्‍चात उस समय वहां पधारेगें, जबकि रणयज्ञमें अस्‍त्र-शस्‍त्रोंद्वारा प्रज्‍वलित की हुई रोषाग्रिमें तुम्‍हारी आहुति देगें जब रोष की आगमें जलते हुए धृतराष्‍ट्रके पुत्रोंपर पाण्‍डव अपने क्रोधरूपी घीकी आहुति डालनेको उद्यत होंगे उस समय मैं ( भीमसेन ) वहाँ पदार्पण करुँगा । राजन् ! शेष पाण्‍डवों ने कोई अप्रिय वचन नहीं कहा । दूतने भी लौटकर दुर्योधनसे सब समाचार ठीक ठीक बता दिया । महाभाग ! तदनन्‍तर विभिन्‍न देशोंके अधिपति नरश्रेष्‍ठ भूपाल तथा ब्राह्मण दुर्योधनकी राजधानी हस्तिनापुर आये । उन सबकी शास्‍त्रीय विधिसे यथोचित सेवा पूजा की गयी । इससे वे नरेश गण अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो मन-ही-मन आनन्‍द का अनुभव करने लगे राजेन्‍द्र समस्‍त कौरवों से घिरे हुए धृतराष्‍ट्रको भी बडा हर्ष हुआ । उन्‍होंने विदुरसे कहा । ‘भइया ! शीघ्र ऐसी व्‍यवस्‍था करो जिससे इस यज्ञ मण्‍डपमें पधारे हुए सभी लोग खान पानसे सन्‍तुष्‍ट एवं सुखी हों’। शत्रुदमन जनमेजय ! धर्मज्ञ एवं विद्वान विदुरजीने सब मनुष्‍योंकी ठीक–ठीक संख्‍याका ज्ञान करके उन सबका यथोचित स्‍वागत–सत्‍कार किया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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