महाभारत वन पर्व अध्याय 261 श्लोक 18-33
एकषष्टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: वन पर्व (व्रीहिद्रौणिक पर्व )
उन सबसे ऊपर ब्रह्माजीके लोक हैं जो अत्यन्त तेजस्वी एवं मंगलकारी हैं । ब्रह्मन ! वहां अपने शुभ कर्मोसे पवित्र ऋषि, मुनि जाते है । वहीं ऋभु नामक दूसरे देवता रहते हैं, जो देवगणोंके भी आराध्य देव हैं देवताओंके लोकोंसे उनका स्थान उत्कृष्ट है । देवता लोग भी यज्ञों द्वारा उनका यजन करते हैं । उनके उत्तम लोक स्वयंप्रकाश, तेजस्वी और सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करने वाले हैं । उन्हें स्त्रियोंके लिये संताप नहीं होता । लोकों के ऐश्वर्य के लिये उनके मन में कभी ईर्ष्या नहीं होती । वे देवताओं की तरह आहुतियों से जीविका नहीं चलाते । उन्हें अमृत पीनेकी भी आवश्यकता नही होती । उनके शरीर दिव्य ज्योतिर्मय हैं । उनकी कोई विशेष आकृति नहीं होती । वे सुखमें प्रतिष्ठित हैं, परन्तु सुखकी कामना नहीं रखते । वे देवताओंके भी देवता और सनातन हैं ।कल्पका अन्त होने पर भी उनकी स्थितिमें परिवर्तन नहीं होता वे ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं । मुने ! उनमें जरा मृत्युकी सम्भावना तो हो ही कैसे सकती है ? हर्ष, प्रीति तथा सुख आदि विकारोंका भी उनमें सर्वथा अभाव भी है ऐसी स्थिति में उनके भीतर दु:ख-सुख तथा राग-द्वेषादि कैसे रह सकती है । मौद्गल्य ! स्वर्गवासी देवता भी उस ( ऋभु नामक देवताओंकी ) परमगतिको प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं ।वह परा सिद्धिकी अवस्था है, जो अत्यन्त दुर्लभ है । विषय-भोगोंकी इच्छा रखने वाले लोगोंकी वहां तक पहुंच नही होती । ये जो तैंतीस देवता हैं, उन्हींके लोकोकी मनीषी पुरूष उत्तम नियमोंके आचरणसे अथवा विधि पूर्वक दिये हुए दानोंसे प्राप्त करते हैं । ब्रह्मन ! तुमने अपने दानके प्रभावसे अनायास ही वह स्वर्गीय सुख सम्पत्ति प्राप्त कर ली है । अपनी तपस्याके तेजसे दैदीप्यमान होकर अब तुम अपने पुण्यसे प्राप्त हुए उस दिव्य वैभव का उपभोग करो । विप्रवर ! यही स्वर्गका सुख है और इसे ही वहां भॉंति-भॉंतिके लोक हैं यहांतक मैंने स्वर्गके गुण बताये हैं अब वहांके दोष भी मुझसे सुन लो । अपने किये हुए सत्कर्मोका जो फल होता है, वही स्वर्ग में भोगा जाता है । वहां कोई नया कर्म नहीं किया जाता । अपना पुण्यरूप मूलधन गवांनेसे ही वहांके भोग प्राप्त होते हैं । मुद्गल ! स्वर्गमें सबसे बड़ा दोष मुझे यह जान पड़ है कि कर्मोका भोग समाप्त होने पर एक दिन वहां से पतन हो ही जाता है । उनका मन सुख भोग में लगा हुआ है, उनको सहसा पतन कितना दु:खदायी होता है । स्वर्ग में भी जो लोग नीचेके स्थानोंमें स्थित हैं, उन्हें अपनेसे ऊपरके लोकोंकी समुज्ज्वल श्रीसम्पत्ति देखकर जो असन्तोष और सन्ताप होता है, उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है । स्वर्ग लोक से गिरते समय वहांके निवासियोंकी चेतना लुप्त हो जाती है । रजोगुणके आक्रमणसे उनकी बुद्धि बिगड़ जाती है । पहले उनके गलेकी मालाये कुम्हला जाती हैं, इससे उन्हें पतनकी सूचना मिल जानेसे उनके मनमें बड़ा भारी भय समा जाता है । मौद्गल्य ! ब्रह्मलोकपर्यन्त जितने लोक हैं, उन सबमें ये भंयकर दोष देखे जाते हैं । स्वर्ग लोकमें रहते समय तो पुण्यात्मा पुरूषोंमे सहस्त्रों गुण होते हैं । मुने ! अल्प परन्तु वहांसे भ्रष्ट हुए जीवोंका भी यह एक अन्य श्रेष्ठ गुण देखा जाता है कि वे अपने शुभ कर्मोके संस्कारसे युक्त होनेके कारण मनुष्य योनिमें ही जन्म पाते हैं ।
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