महाभारत वन पर्व अध्याय 263 श्लोक 20-41
त्रिषष्टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: वन पर्व (द्रोपदीहरण पर्व )
तब भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदी से कहा –‘कृष्णे ! इस समय मुझे बड़ी भूख लगी है; मैं भूखसे अत्यन्त पीडित हो रहा हूँ। पहले मुझे जल्दी भोजन करा । फिर सारा प्रबन्ध करती रहना ।’ उनकी यह बात सुनकर द्रौपदीको बड़ी लज्जा हुई । वह बोली-‘भगवन् ! सूर्यनारायण की दी हुई बटलोईसे तभीतक भोजन मिलता है, जबतक मैं भोजन न कर लूं । देव ! आज तो मैं भी भोजन कर चुकी हूँ अत: अब उसमें अन्न नहीं रह गया है’ । यह सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदीसे कहा-‘कृष्णे ! मैं तो भूख और थकावट से आतुर हो रहा हूँ और तुझे हंसी सूझती है । यह परिहास का समय नहीं है जल्दी जा और बटलोई लाकर मुझे दिखा । इस प्रकार हठ करके भगवान्ने द्रौपदी से बटलोई मंगवायी । उसके गले में जरा सा साग लगा हुआ था । उसे देखकर श्रीकृष्णने लेकर खा लिया और द्रौपदीसे कहा-‘इस सागसे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरि तृप्त और सन्तुष्ट हो’ । इतना कहकर सबका क्लेश दूर करनेवाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण सहदेवसे बोले-‘तुम शीघ्र जाकर मुनियों को भोजनके लिये बुला लाओ’ । नृपश्रेष्ठ ! तब महायशस्वी सहदेव देवनदीमें स्नानके लिये गये हुए उन दुर्वासा आदि सब मुनियोंको भोजनके निमित्त बुलानेके लिये तुरंन्त गये । वे मुनि लोग उस समय जलमें उतरकर अघमर्षण मन्त्रका जप कर रहे थे । सहसा उन्हें पूर्ण तृप्ति का अनुभव हुआ; बार-बार अन्नरससे युक्त डकारें आने लगीं । यह देखकर वे जल से बाहर निकले और, आपस में एक दूसरे की ओर देखने लगे । ( सबकी एक सी अवस्था हो रही थी ) वे सभी मुनि दुर्वासाकी ओर देखकर बोले –‘ब्रह्मर्षें ! हम लोग राजा युधिष्ठिर को रसोई बनवानेकी आज्ञा देकर स्नान करनेके लिये आये थे, परन्तु इस समय इतनी तृप्ति हो रही है कि कण्ठतक अन्न भरा हुआ जान पड़ता है । अब हम कैसे भोजन करेंगें ? हमने जो रसोई तैयार करवायी है, वह व्यर्थ होगी । उसके लिये हमें क्या करना चाहिेये’। दुर्वासा बोले-वास्तव में व्यर्थ ही रसोई बनबाकर हमने राजर्षि युधिष्ठिरका महान् अपराध किया है । कहीं ऐसा न हो कि पाण्डव क्रूर दृष्टि से देखकर हमें भस्म कर दें । ब्राह्मणों ! परम बुद्धिमान् राजा अम्बरीषके प्रभावको याद करके मैं उन भक्तजनोंसे सदा डरता रहता हूँ, जिनहोंने भगवान् श्रीहरिके चरणोंका आश्रय ले रखा है । सब पाण्डव महामना, धर्मपरायण, विद्वान्, शूरवीर, व्रतधारी तथा तपस्वी है । वे सदा सदाचारपरायण तथा भगवान् वासुदेवको अपना परम आश्रय माननेवाले है । पाण्डव कुपित होकर हमें उसी प्रकार भस्म कर सकते हैं, जैसे रूईके ढेरको आग । अत: शिष्यो ! पाण्डवोंसे बिना पूछे ही तुरन्त भाग चलो ।। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! गुरू दुर्वासा मुनिके ऐसा कहनेपर वे सब ब्राह्मण पाण्डवों से अत्यन्त भयभीत हो दशो दिशाओंमें भाग गये । सहदेवने जब देवनदीमें उन श्रेष्ठ मुनियोंको नहीं देखा,तब वे वहांके तीर्थोमें इधर-उधर खोजते हुए विचरने लगे । वहां रहनेवाले तपस्वी मुनियोंके मुखसे उनके भागने – का समाचार सुनकर सहदेव युधिष्ठिरके पास लौट आये और सारा वृन्तान्त उनसे निवेदन कर दिया । तदनन्तर मनको वशमें रखने वाले सब पाण्डव उनके लौट आनेकी आशासे कुछ देरतक उनकी प्रतीक्षा करते रहे । पाण्डव सोचने लगे- दुर्वासा मुनि अकस्मात आधी रात को आकर हमें छलेगें । दैववश प्राप्त हुए इस महान् संकटसे हमार उद्धार कैसे होगा ?’ इसी चिन्ता में पडकर वे बारंबार लंबी सांसें खीचने लगे । उनकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्ठिर आदि अन्य सब पाण्डवोंको प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा ।
« पीछे | आगे » |