महाभारत वन पर्व अध्याय 269 श्लोक 14-28
एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम (269) अध्याय: वन पर्व ( द्रौपदीहरण पर्व )
‘द्रौपदी बाहर प्रकट हुई पाण्डवोंकी अन्तरात्मा है । अपने पतियोंसे सनाथ महारानी द्रौपदीको यहां कौन मूर्ख नहीं जानता था १ आज पाण्डवोंके अत्यन्त भंयकर और तीक्ष्ण श्रेष्ठ बाण किसके शरीरको विदीर्ण करके पृथ्वीमें घुस जायँगे ? ‘भीरू ! तू महारानी द्रौपदीके लिये शोक न कर । तू समझ ले कि अभी वे पुन: यहां आ जायंगी । कुन्तीके पुत्र अपने समस्त शत्रुओंका संहार करके द्रुपदकुमारीसे अवश्य मिलेंगे’ । तब अपने सुन्दर मुखपर बहते हुए आंसुओंको ( दोनों हाथोंसे ) पोंछकर धात्रेयिकाने सारथि इन्द्रसेनसे कहा-‘इन्द्रसेन ! इन्द्रके समान पराक्रमी इन पांचों पाण्डवोंका अपमान करके जयद्रथने हठपूर्वक द्रौपदीका अपहरण किया है । देखो, उसके रथ और सैनिकोंके जानेसे जो ये नये मार्ग बन गये हैं, वे ज्यों-के-त्यों हैं,मिटे नहीं हैं तथा ये टूटे हुए वृक्ष भी अभी मुरझाये नहीं हैं । ‘इन्द्रके समान तेजस्वी समस्त पाण्डव वीरो ! आप लोग अपने रथोंको लौटाइये । शीघ्र शत्रुओंका पीछा कीजिये । अभी राजकुमारी द्रौपदी दूर नहीं गयी होगी शीघ्र ही महान् एवं मनोहर कवच धारण कर लीजिये । ‘बहुमूल्य धनुष और बाण ले लीजिये और शीघ्रही शत्रुके मार्गका अनुसरण कीजिये । कहीं ऐसा न हो कि डांट-डपट और दण्डके भयसे मोहित और व्याकुलचित्त हो अपना उदास मुख लिये द्रौपदी किसी अयोग्य पुरूषको आत्मसमर्पण कर दे । ऐसी घटना घटित होनेसे पहले ही वहां पहुँच जाइये । यदि राजकुमारी कृष्णा किसी पराये पुरूषके हाथमें पड़ गयी, तो समझ लीजिये, किसीने उत्तम घीसे भरी हुई स्त्रुवाको राखमें ड़ाल दिया, हविष्यको भूसेकी आगमें होम दिया गया, ( देव पूजा के लिये बनी हुई ) सुन्दर माला श्मशानमें फेंक दी गयी, यज्ञमण्डमें रखे हुए पवित्र सोमरसको वहांके ब्राह्मणोंकी असावधानीसे किसी कुत्तेने चाट लिया और विशाल वनमें शिकार करके अशुद्ध हुए गीदड़ने किसी पवित्र सरोवरमें गोता लगाकर उसे अपवित्र कर दिया; अत: ऐसी अप्रिय घटना घटित होनेसे पहले ही आपलोगोंको वहां पहुंच जाना चाहिये । ‘कहीं ऐसा न हो कि आप लोगों की प्रियाके सुन्दर नेत्र तथा मनोहर नासिका से सुशोभित चन्द्ररश्मियोंके समान स्वच्छ, प्रसन्त्र एवं पवित्र मुखको कोई कुकर्मकारी पापात्मा पुरूष छू दे; ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ता यज्ञके पुरोडाशको चाट ले अत: जितना शीघ्र सम्भव हो, इन्हीं मार्गोसे शत्रुका पीछा कीजिये । आपलोगोंका बहुमूल्य समय यहां अधिक नहीं बीतना चाहिये’ । युधिष्ठिर बोले–भद्रे ! हट जाओ । अपनी जबान बंद करो । हमारे निकट द्रौपदीके सम्बधमें ऐसी अनुचित और कठोर बातें मुँहसे न निकालो । जिन्होंने अपने बलके घमंडमें आकर ऐसा निन्दनीय कार्य किया है, वे राजा हों या राजकुमार, उन्हे अपने प्राण एवं सम्मानसे अवश्य बच्चित होना पड़ेगा । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! ऐसा कहकर समस्त पाण्डव अपने विशाल धनुषकी डोरी खींचते और बार-बार सर्पोंके समान फुफकारते हुए उन्हीं मार्गोंपर चलते हुए बडे वेगसे आगे बढ़े । तदनन्तर उन्हे जयद्रथकी सेनाके घोड़ोंकी टापसे आहत होकर उड़ती हुई धुल दिखायी दी । उसके साथ ही पैदल सैनिकोंके बीचमें होकर चलते हुए पुरोहित धौम्य भी दृष्टिगोचर हुए, जो बार-बार पुकार रहे थे–‘भीमसेन ! दौड़ो’ । तब असाधारण पराक्रमी राजकुमार पाण्डव धौम्य मुनिको सान्त्वना देते हुए बोले-‘आप निश्चित होकर चलिये, (हम लोग आ पहुँचे हैं ।)’ फिर जैसे बाज मांसकी ओर झपटते हैं, उसी प्रकार पाण्डव जयद्रथकी सेनाके पीछे बड़े वेगसे दौड़े । इन्द्रके समान पराक्रमी पाण्डव द्रौपदीके तिरस्कारकी बात सुनकर ही क्रोधातुर हो रहे थे; जब उन्होने जयद्रथको और उसके रथ पर बैठी हुई अपनी प्रिया द्रौपदीको देखा, तब तो उनकी क्रोधाग्नि प्रबल वेगसे प्रज्वलित हो उठी । फिर तो भीमसेन, अर्जुन, नुकल, सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर-ये सभी महाधनुर्धर वीर सिन्धुराज जयद्रथको ललकारने लगे । उस समय शत्रुओंके सैनिकोंको इतनी घबराहट हुई कि उन्हें दिशाओंतकका ज्ञान न रहा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रोपदीहरणपर्वमें पार्थागमनविषयक दो सौ उनहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ ।
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