महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 19-35
द्विसप्तत्यधिकद्विशततम (272) अध्याय: वन पर्व (जयद्रथविमोक्षण पर्व )
राजन् तब जयद्रथ बन्धनसे मुक्त कर दिया गया । उसने विहृल होकर राजा युधिष्ठिर के पास जा उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् वहाँ बैठे हुए अन्यान्य मुनियोंको भी देखकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया । उस समय ( आदर देते हुए ) अर्जुनने जद्रथका हाथ थाम लिया । तब दयालु राजा धर्म पुत्र युधिष्ठिरने जयद्रथकी ओर देखकर कहा-‘सिन्धुराज ! अब तू दास नहीं रहा, जा, तुझे छोड़ दिया गया है । फिर कभी ऐसा काम न करना । अरे ! तू परायी स्त्रीकी इच्छा करता है, तुझे धिक्कार है ! तू स्वयं तो नीच है ही, तेरे सहायक भी अधम हैं । तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा नराधाम है, जो ऐसा धर्मविरूद्ध कार्य कर सके १ तेरा यह कर्म सम्पूर्ण लोकमें निन्दित है’ । वह अशुभ कर्म करनेवाला जयद्रथ मृतप्राय-सा हो गया है, यह देख और समझकर भरत श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने उसपर कृपाकी और कहा-‘तेरी बुद्धि धर्ममें उत्तरोतर बढ़ती रहे, तू कभी अधर्ममें मन न लगाना । जयद्रथ ! अपने रथ, घोड़े और पैदल सबको साथ लिये कुशलपूर्वक चला जा’ । राजन् युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर जयद्रथ बहुत लज्जित हुआ और नीचा मुँह किये वहाँसे चुपचाप चला गया । तब जनमेजय ! वह पराजित होनेके महान् दु:खसे पीडित था; अत: वहाँसे घर न जाकर गंगा द्वार ( हरिद्वार ) को चल दिया । वहाँ पहुँचकर उसने तीन नेत्रों वाले भगवान् उमापतिकी शरणले बड़ी भारी तपस्या की । इससे भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये । त्रिनेत्रधारी महादेवने प्रसन्त्रता पूर्वक स्वयं दर्शन देकर उसकी पूजा ग्रहण की । जनमेजय ! भगवान् ने उसे वर दिया और जयद्रथने उसको ग्रहण किया । वह वर क्या था ? यह बताता हूँ, सुनो-‘मैं रथसहित पाँचों पाण्डवोंको युद्ध में जीत लूँ’ यही वर सिन्धुराजने महादेवजीसे माँगा । परन्तु महादेवजीने उससे कहा-‘ऐसा नही हो सकता । पाण्डव अजेय और अवध्य हैं । तुम केवल एक दिन युद्धमें महाबाहु अर्जुनको छोड़कर अन्य चार पाण्डवोंको आगे बढ़नेसे रोक सकते हो । देवेश्वर नर, जो बदरिकाश्रममें भगवान् नारायणके साथ रहकर तपस्या करते हैं, वे ही अर्जुन हैं । ‘उन्हें तुम तो क्या सम्पूर्ण लोक मिलकर जीत नहीं सकते । उनका सामना करना तो देवताओंके लिये भी कठिन है । मैंने उन्हें पाशुपात नामक दिव्य अस्त्र प्रदान किया है, जिसके जोड़का दूसरा कोई अस्त्र ही नहीं है । इसके सिवा अन्यान्य लोकपालोंसे भी उन्होंने वज्र आदि महान् अस्त्र प्राप्त किये हैं । [ ‘अब मैं तुम्हें नर स्वरूप, अर्जुनके सहायक भगवान् नारायणकी महिमा बताता हूँ, सुनो ] भगवान् नारायण देवताओंके भी देवता, अनन्तस्वरूप, सर्वव्यापी, देवगुरू, सर्वसमर्थ, प्रकृति-पुरूषरूप, अव्यक्त, विश्वात्मा एवं विश्वरूप हैं । ‘प्रलयकाल उपस्थित होनेपर वे भगवान् विष्णु ही कालागिनरूपसे प्रकट हो पर्वत, समुद्र, द्वीप, शैल, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण जगत्को दग्ध कर देते हैं । ‘फिर पातालतलमें विचरण करनेवाले नागलोकोंको भी वे भस्म कर डालते हैं । कालाग्निद्वारा सब कुछ भस्म हो जानेपर आकाशमें अनेंक रंगके महान् मेघोंकी घोर घटा घिर आती है । ‘भयंकर स्वर गर्जना करते हुए वे बादल बिजलियोंकी मालाओंसे प्रकाशित हो सम्पूर्ण दिशाओंमें फैल जाते और सब ओर वर्षा करने लग जाते हैं । ‘इससे प्रलयकालीन अग्नि बुझ जाती है । संवर्तक अग्निका नियन्त्रण करनेवाले वे महामेघ लम्बें सर्पोके समान मोटी धाराओंसे जल गिराते हुए सबको ड़ूबो देते हैं ।
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