महाभारत वन पर्व अध्याय 275 श्लोक 22-40

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पच्‍चसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (275) अध्‍याय: वन पर्व( रामोपाख्‍यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: पच्‍चसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद
रावण, कुम्‍भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्‍पत्ति, तपस्‍या और वर प्राप्ति तथा कुबेर का रावण को शाप देना

ब्रह्माजी बोले-पुत्रो ! मैं तुम सबपर प्रसन्‍त्र हूँ, वर मांगों और तपस्‍यासे निवृत्‍त हो जाओ । केवल अमरत्‍व को छोड़कर जिसकी जो-जो इच्‍छा हो, उसके अनुसार वह वर मांगे । उसका वह मनोरथ पूर्ण होगा । ( तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने रावण की ओर लक्ष्‍य करके कहा- ) तुमने महत्‍वपूर्ण पद प्राप्‍त करनेकी इच्‍छासे अपने जिन-जिन मस्‍तकोंकी अग्निमें आहुति दी है, वे सबके सब पूर्ववत् तुम्‍हारे शरीरमें इच्‍छानुसार जुड़ जायेंगे । तुम्‍हारे शरीरमें किसी प्रकारकी कुरूपता नहीं होगी, तुम इच्‍छानुसार रूप धारणकर सकोगे तथा युद्धमें शत्रुओं पर विजयी होओगे, इसमें संशय नहीं है । रावण बोला भगवन् ! गन्‍धर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्‍त्रर तथा भूतोंसे कभी मेरी पराजय न हो ।। ब्रह्माजीने कहा- तुमने जिन लोगोंका नाम लिया है, इनमेंसे किसीसे भी तुम्‍हें भय नही होगा । केवल मनुष्‍योंको छोड़कर तुम सबसे निर्भय रहो । तुम्‍हारा भला हो । तुम्‍हारे लिये मनुष्‍यसे होनेवाले भयका विधान मैंने ही किया है । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् ! ब्रह्माजीके ऐसा कहने पर दसमुख रावण बहुत प्रसन्‍त्र हुआ । वह दुर्बुद्धि नरभक्षी राक्षस मनुष्‍योंकी अवहेलना करता था । तत्‍पश्‍चात् ब्रह्माजीने कुम्‍भकर्णसे वर मांगनेको कहा । परंन्‍तु उसकी बुद्धि तमोगुण से ग्रस्‍त थी; अत: उसने अधिक काल तक नींद लेनेका वर मांगा । उसे ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर ब्रह्माजी विभीषणके पास गये और इस प्रकारबोले-‘बेटा ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्‍त्र हूँ, अत: तुम भी वर मांगो ।’ ब्रह्माजीने यह बात बार-बार दुहरायी । विभीषण बोले-भगवन् ! बहुत बडा संकट आनेपर भी मेरे मनमें कभी पापका विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदयमें ब्रह्मास्‍त्रके प्रयोग और उपसंहारकी विधि स्‍फुरित हो जाय । ब्रह्माजीने कहा-शत्रुनाशन ! राक्षस योनिमें जन्‍म लेकर भी तुम्‍हारी बुद्धि अधर्ममें नहीं लगती है; इसलिये (तुम्‍हारे मांगे हुए वरके अतिरिक्‍त ) मैं तुम्‍हें अमरत्‍व भी देता हूँ ।।मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् ! राक्षस दशानननें वर प्राप्‍त कर लेनेपर सबसे पहले अपने भाई कुबेरको युद्धमें परास्‍त किया और उन्‍हें लंकाके राज्‍यसे बहिष्‍कृत कर दिया । भगवान् कुबेर लंका छोड़कर गन्‍धर्व, यक्ष, राक्षस तथा किम्‍पुरूषोंके साथ गन्‍धमादन पर्वतपर आकर रहने लगे । रावणने आक्रमण करके उनका पुष्‍पक विमान भी छीन लिया । तब कुबेरने कुपित होकर उसे शाप दिया-‘अरे ! यह विमान तेरी सवारीमें नहीं आ सकेगा । जो युद्धमें तुझे मार डालेगा, उसीका यह वाहन होगा । मैं तेरा बड़ा भाई होनेके कारण मान्‍य था, परंतु तूने मेरा अपमान किया है । इससे बहुत शीघ्र तेरा नाश हो जायगा’। महाराज ! विभीषण धर्मात्‍मा थे । उन्‍होंने सत्‍पुरूषोंके मार्गका ध्‍यान रखकर सदा अपने भाई कुबेरका अनुसरण किया; अत: वे उत्‍तम लक्ष्‍मीसे सम्‍पन्‍न हुए । बड़े भाई बुद्धिमान् कुबेरने संतुष्‍ट होकर छोटे भाई विभीषणको यक्ष तथा राक्षसोंकी सेनाका सेना‍पति बना दिया । नरभक्षी राक्षस तथा महाबली पिशाच-सबने मिलकर दशमुख रावणको राक्षसराजके पदपर अभिषिक्‍त किया । बलोन्‍मत रावण इच्‍छानुसार रूप धारण करने और आकाशमें भी चलनेमे समर्थ था । उसने दैत्‍यों और देवताओंपर आक्रमण करके उनके पास जो रत्‍न्र या रत्‍नभूत वस्‍तुएँ थीं, उन सबका अपहरण कर लिया । उसने सम्‍पूर्ण लोकोंको रूला दिया था; इसलिये वह रावण कहलाता है दशाननका बल उसके इच्‍छानुसार बढ़ जाता था; अत: वह सदा देवताओंको भयभीत किये रहता था ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्‍तर्गत रामोपाख्‍यानपर्वमें रावण आदिको वरप्राप्तिविषयक दो सौ पचहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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