महाभारत वन पर्व अध्याय 283 श्लोक 1-18

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त्र्यशीत्यधिकद्वशततम (283) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

वानर-सेना का संगठन, सेतु का निर्माण, विभीषण का अभिषेक और लंका की सीमा में सेना का प्रवेश तथा अंगद को रावण के पास दूत बनाकर भेजना मार्कण्डेय कहते हैं - युधिष्ठिर ! तदनन्तर सुग्रीव की आाा के अनुसार बड़े-बड़े वानर वीर माल्यवान् पर्वत लक्ष्मण आदि के साथ बैइे हुए भगवान श्रीराम के पास पहुँचने लगे। सबसे पहले बाली के श्वसुर श्रीमान् सुषेण श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में उपस्थित हुए। उनके साथ वेगशाली वानरों की सहस्त्र कोटि (दस अरब) सेना थी। फिर महापराक्रमी वानरराज ‘गज’ और ‘गवय’ पृथक्-पृथक् एक-एक अरब सेना के साथ आते दिखाई दिये। महाराज ! गोलांगूल (लंगूर) जाति के वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़ा भयंकर था, साठ सहस्त्र कोटि (छः अरब) वानर सेना साथ लिये दृष्टिगोचर हुआ। गन्धमादन पर्वत पर रहने वाला गन्धमादन नाम से विख्यात वानर वानरों की दस खरब सेना साथ लेकर आया। पनस नामक बुद्धिमान तथा महाबली वानर सत्तावन करोड़ सेना साथ लेका आया। वानरों में वृद्ध तथा अत्यन्त पराक्रमी श्रीमान् दधिमुख भयंकर तेज से सम्पन्न वानरों की विशाल सेना साथ लेकर आये। जिनके मुख (ललाट) पर तिलक का चिन्ह शोभा पा रहा था तथा जो भयंकर पराक्रम करने वाले थे, ऐसे काले रंग के शतकोटि सहस्त्र (दस अरब) रीछों की सेना के साथ वहाँ जाम्बवान् दिखायी दिये। महाराज ! ये तथा और भी बहुत से वानरयूथपतियों के भी यूथपति, जिनकी कोई संख्या नहीं थी, श्रीरामचन्द्रजी के कार्य से वहाँ एकत्र हुए। उनके अंग पर्वतों के शिखर के सदृश जान पड़ते थे। वे सबके सब सिंहों के समान गरजते और इधर-उधर दौड़ते थे। उन सबका सम्मिलित शब्द बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। कोई पर्वत-शिखर के समान ऊँचे थे, तो कोई भैंसों के सदृश मोटे और काले। कितने ही वानर शरद् ऋतु के बादलों की तरह सफेद दिखायी देते थे, कितनों के ही मुख सिंदूर के समान लाल रंग केथे। वे वानर सैनिक उछलते, गिरते-पड़ते, कूदते-फाँदते और धूल उड़ाते हुए चारों ओर से एकत्र हो रहे थे। वानरों की वह विशान सेना भरे-पूरे महासागर के समान दिखायी देती थी। सुग्रीव की आज्ञा से उस समय माल्यवान् पर्वत के आस-पास ही उस समसत सेना का पड़ाव पडत्र गया। तदनन्तर उन समस्त श्रेष्ठ वानरों के सब ओर से एकत्र हो जाने पर सुग्रीव सहित भगवान श्रीराम ने एक दिन शुभ तिथि, उत्तम नक्षत्र और शुभ मुहुर्त में युद्ध के लिये प्रस्थान किया। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो वे उस व्यूह-रचना युक्त सेना के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने जा रहे हैं। उस सेना के मुहाने पर वायुपुत्र हनुमानजी विराजमान थे। किसी से भी भय न मानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण उसके पृष्ठभाग की रक्षा कर रहे थे। दोनों रघुवंशी वीर श्रीराम और लक्ष्मण हाथों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने पहने हुए थ। वे ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वानर जातीय मन्त्रियों के बीच में होकर चल रहे थे। श्रीरामचन्द्रजी के सम्मुख साल, ताल और शिलारूपी आयुध लिये वे समसत वानर सैनिक सूर्योदय के समय पके हुए धान के विशाल खेतों के समान जान पड़ते थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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