महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 18-35

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एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 18-35 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


साथ ही इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण, यक्षराज भगवान कुबेर तथा निर्मल चित्तवाले सप्तर्षिगण भी वहाँ अस गये। इनके सिवा हंसों से युक्त एक बहुमूल्य तेजस्वी विमान द्वारा दिव्य प्रकाशमान स्वरूप धारण किये स्वयं राजा दशरथ भी वहाँ पधारे । उस समय देवताओं और गन्धर्वों से भरा हुआ वह सम्पूर्ण अन्तरिक्ष इस प्रकार शोभा पाने लगा, मानो असंख्य तारागणों से चित्रित यशरद्ऋतु का आकाश हो । तब उन सबके बीच में चाड़ी होकर कल्याणमयी यशस्विनी सीता ने चैड़ी छाती वाले भगवान श्रीराम से इस प्रकार कहा- ‘राजपुत्र ! मैं आपको दोष नहीं देती, क्योंकि आप स्त्रियों और पुरुषों की कैसी गति है, यह अच्छी तरह जानते हैं। केवल मेरी यह बात सुन लीजिये ।‘निरन्तर संचरण करने वाले वायुदेव समस्त प्राणियों के

भीतर विचरते हैं। यदि मैंने कोई पापाचार किया हो तो वे वायुदेवता मेरे प्राणों का परित्याग कर दें। ‘यदि मैं पाप का आचरण करती होऊँ र्तो अिग्न, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु- ये सब मिलकर मुझसे मेरे प्राणों का वियोग करा दें । ‘वीर ! यदि मैंने आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वप्न में भी चिन्तन न किया हो तो देवताओं के दिये हुए एकमात्र आप ही मेरे पति हों’। तदनन्तर आकाश में सब लोगों को साक्षी देती हुई एक सुन्दर वाणी उच्चरित हुई, जो परम पवित्र होने के साथ ही उन महामना वानरों को भी हर्ष प्रदान करने वाली थी । ( उस आकाशवाणी के रूप में ) वायुदेवता बोले- रघुनन्दन ! मैं सदा विचरण करने वाला वायु देवता हूँ। सीता ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। राजन् ! मिथिलेशकुमारी सर्वथा पापशून्य हैं। आप अपनी इस पत्नी से निःसंकोच हाकर मिलिये । अग्निदेव ने कहा- रघुनन्दन ! मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला अग्नि हूँ। मुझे मालूम है कि मिथिलेशकुमारी के द्वारा कभी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अपराध नहीं हुआ है। वरूणदेव ने कहा- श्रीराम ! समस्त प्राणियों के शरीर में जो जलतत्व है, वह मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। अतः मैं तुमसे कहता हूँ, मिथिलेशकुमारी निष्पाप है, उसे ग्रहण करो। ततपश्चात् ब्रह्माजी बोले- वत्स ! तुम राजर्षियो के धर्म पर चलने वाले हो; अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नहीं है। साधु सदाचारी श्रीराम ! तुम मेरी यह बात सुनो । वीरवर ! यह रावण देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष, दानव तथा महर्षियों का भी शत्रु था। इसे तुमने मार गिराया है ।पूर्वकाल में मेरे ही प्रसाद से यह समस्त प्राणियों के लिये अवध्य हो गया था। किसी कारणवश ही कुद कालतक इस पापी की उपेक्षा की गयी थी । दुरात्मा रावण ने अपने वध के लिये ही सीता का अपहरण किया था। नलकूबर के शाप द्वारा मैंने सीता की रक्षा का प्रबन्ध कर दिया था । पूर्वकाल में रावण को यह शाप दिया गया था कि यदि यह उसे न चाहने वाली किसी परायी स्त्री का बलपूर्वक सेवन करेगा तो उसके मस्तक के सैंकड़ों टुकड़े हो जायँगे । अतः महातेजस्वी श्रीराम ! तुम्हें सीता के विषय में कोई शंका नहीं करनी चाहिये। इसे ग्रहण करो। देवताओं के समान तेजस्वी वीर ! तुमने रावण को मार कर देवताओं का महान् कार्य सिद्ध किया है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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