महाभारत वन पर्व अध्याय 299 श्लोक 1-17
नवनवत्यधिकद्विशततम (299) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
शाल्वदेश की प्रजा के अनुरोध से महाराज द्युमत्सेन का राज्याभिषेक कराना तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
मार्कण्डेयजी कहते हैं- जब वह रात बीत गयी और सुर्यमण्डल का उदय हुआ, उस समय सच तपोधन ऋषिगण पूर्वान्हकान का नित्यकृत्य पूरा करके पुनः उस आरम में एकत्र हुए। वे ऋषिगण राजा द्युमतसेन से सावित्री के उस परम सौभाग्य का बारंबार वर्णन करते हुए भी तृप्त नहीं होते थे। राजन् ! उसी समय शाल्व देश से वहाँ की सारी प्रजाओं ने आकर महाराज द्युमत्सेन से कहा- ‘प्रभो ! आपका शत्रु अपने ही मन्त्री के हाथों मारा गया है’। उन्होंने यह भी निवेदन किया कि ‘उसके सहायक और बन्धु-बान्धव भी मन्त्री के हाथों मर चुके हैं। शत्रु की सारी सेना पलायन कर गयी है। यह यथावत् वृतानत सुनकर सब लोगों का एकमत से यह निश्चय हुआ है कि हमें पूर्व नरेश पर ही विश्वास है। उन्हें दिखायी देता हो या न दीखता हो, वे ही हमारे राजा हों। ‘नरेश्वर ! ऐसा निश्चय करके ही हमें यहाँ भेजा गया है। ये सवारियाँ प्रस्तुत हैं और आपकी चतुरंगिणी सेना की सेवा में उपस्थित है। राजन् ! आपका कल्याण हो। अब अपने राज्य में पधारिये। नगर में आपकी विजय घोषित कर दी गयी है। आप दीर्धकाल तक अपने बाप-दादों के राज्य पर प्रतिष्ठित रहें।। तत्पश्चात् राजा द्युमत्सेन को नेत्रयुक्त और स्वस्थ शरीर से सुशोभित देखकर उनके नेत्र आश्चर्य से खिल उठे और सबने मसतक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद राजा ने आरम में रहने वाले उन वृद्ध ब्राह्मणों का अभिवादन किया और उन सबसे समाहत हो वे अपनी राजधानी की ओर चले। शैव्या भी अपनी बहू सावित्री के साथ सुन्दर बिछावन से युक्त तेजसवी शिविका पर, जिसे कई कहार ढो रहे थे, आरूढ़ हो सेना से घिरी हुई चल दी। वहाँ पहुँचने पर पुरोहितों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ द्युमत्सेन का राज्याभिषेक किया। साथ ही उनके महमना पुत्र सत्यवान् को भी युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया।। तदनन्तर दीर्धकाल के पश्चात् सावित्री के गर्भ से उसकी कीर्ति बढ़ाने वाले सौ पुत्र उत्पन्न हुए। वक सब-के-सब शूरवीर तथा संग्राम से कभी पीछे न हटने वाले थे। इसी प्रकार मद्रराज अश्वपति के भी मालवी के गर्भ से सावित्री के सौ सहोदर भाई उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त बलशाली थे। इस तरह सावित्री ने अपने आपको, पिता-माता को, सास-ससुर को तथा पति के समस्त कुल को भारी संकअ से बचा लिया था। सावित्री की ही भाँति यह कल्याणमयी उत्तम कुलवाली सुशीला द्रौपदी तुम सब लोगों का महान् संकट से उद्धार करेगी। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार उन महात्मा मार्कण्डेयजी के समझाने-बुझाने और आश्वासन देने पर उस समय पाण्डुननदन राजा युधिष्ठिर शोक तथा चिन्ता रहित हो काम्यकवन में सुचापूर्वक रहने लगे। जो इस परम उत्तम सावित्री उपाख्यान को भक्तिभाव से सुनेगा, वह मनुष्य सदा अपने समस्त मनोरथों के सिद्ध होने से सुखी होगा और कभी दुःख नहीं पायेगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ निन्यानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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