महाभारत वन पर्व अध्याय 300 श्लोक 19-33

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त्रिशततम (300) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिशततमोऽध्यायः 19-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


‘मानद ! तुम अपने कवच और कुण्डलों से संयुक्त होने पर रण में शत्रुओं के लिये भी अवध्य बने रहोगे, मेरी इस बात को समझ लो। ‘कर्ण ! ये दोनों रत्नमय कवच और कुण्डल अमृत से उत्पन्न हुए हैं; अतः यदि तुम्हें अवपना जीवन प्रिय हो, तो इन दोनों वस्तुओं की रक्षा अवश्य करना’। कर्ण ने पूछा- भगवन् ! आप मेरे प्रति अत्यन्त स्नेह दिखाते हुए जो इस प्रकार हितकर सलाह दे रहे हैं, इससे मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं ? यदि इच्छा हो, तो बताइये। इस प्रकार ब्राह्मण वेष धारण करने वाले आप कौन हैं ? ब्राह्मण ने कहा- तात ! मैं सहस्त्रांशु सूर्य हूँ। स्नेहवश ही तुम्हें दर्शन देकर सामयिक कर्तव्य सुझा रहा हूँ। तुम मेरा कहना मान लो। इससे तुम्हारा परम कल्याण होगा।। कर्ण ने कहा- जिसके हित का अनुसंधान साक्षात् भगवान सूर्य करते और हित की बात बताते हैं, उस कर्ण का तो परम कल्याण है ही। भगवन् ! आप मेरी यह बात सुनें। प्रभो ! आप वरदायक देवता हैं। मैं आपसे प्रसन्न रहने का अनुरोध करता हूँ और प्रेम पूर्वक यह कहता हूँ कि यदि मैं आपका प्रिय हूँ, तो आप मुझे इस व्रत से विचलित न करें। सूर्यदेव ! संसार में सब लोग मेरे इस व्रत के विषय में पूर्णरूप से जानते हैं कि मैं श्रेष्ठ ब्राह्मणों के याचना करने पर उन्हें निश्चय की अपने प्राण भी दे सकता हूँ। आकाश में विचरने वालों में उत्तम सुर्यदेव ! यदि पाण्डवों के हित के लिये ब्राह्मण के छद्मवेश में अपने को छिपाकर साक्षात् इन्द्रदेव मेरे पास भिक्षा माँगने आ रहे हैं, तो देवेश्वर ! मैं उन्हें दोनों कुण्डल और उत्तम कवच अवश्य दे दूँगा, जिससे तीनों लोकों में विख्यात हुई मेरी कीर्ति नष्ट न होने पाये।। मेरे जैसे शूरवीर को प्राण देकर भी यश की रक्षा करनी चाहिये; अपयश लेकर प्राणों की रक्षा करनी कदापि उचित नहीं है। सुयश के साथ यदि मृत्यु हो जाय, तो वह वीरोचित एवं सम्पूर्ण लोक के लिये सम्मान की वस्तु है। ऐसी सिथति में यदि बलासुर और वृत्रासुर के विनाशक देवराज इन्द्र मेरे पास भिक्षा के लिये पधारेंगे, तो मैं कवच सहित दोनों कुण्डल उन्हें अवश्य दे दूँगा। यदि इन्द्र पाण्डवों के हित के लिये मेरे कुण्डल माँगने आयँगे, तो मेरी कीर्ति बढ़ेगी और उनका अपयश होगा। अतः सूर्यदेव ! मैं जीवन देकर भी जगत् में कीर्ति का ही वरण करूँगा। कीर्तिमान् पुरुष स्वर्ग का सुख भोगता है। जिसकी कीर्ति नष्अ हो जाती है, वह स्वयं भी नष्ट ही है। कीर्ति इस संसार में माता की भाँति मनुष्य को नूतन जीवन प्रदान करती है। परंतु अकीर्ति जीवित पुरुष के भी जीवन को नष्ट कर देती है। विभावसो ! लोकेश्वर ! साक्षात् ब्रह्माजी के द्वारा गाया हुआ य िप्राचील श्लोक है कि कीर्ति मनुष्य की आयु है।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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