महाभारत वन पर्व अध्याय 307 श्लोक 1-18
सप्ताधिकत्रिशततम (307) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
वैशम्पायन कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार राजकन्या मनस्विनी कुन्ती नाना प्रकार से मधुर वचन काकर अनुनय-विनय करने पर भी भगवान सूर्य को मनाने में सफल न हो सकी। राजन् ! जब वह बाला अन्धकारनाशक भगवान सूर्यदेव को टाल न सकी, तब शाप से भयभीत हो दीर्धकाल तक मन-ही-मन कुछ सोचने लगी। उसने सोचा कि ‘क्या उपाय करूँ ? जिससे मेरे कारण मेरे निरपराध पिता तथा निर्दोष ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए इन सूर्यदेव से शाप न प्राप्त हो। ‘सज्जन बालक को भी चाहिये कि वह अत्यन्त निकट न जाय। ‘परंतु मैं तो आज अत्यंत भयभीत हो भगवान सूर्यदेव के हाथ में पड़ गयी हूँ, तो भी स्वयं अपने शरीर को देने जैसा न करने योग्य नीत्र कर्म कैसे करूँ ? वैशम्पायनजी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ ! कुन्ती शाप से अत्यन्त डरकर मन-ही-मन तरह-तरह की बातें सोच रही थी। उसके सारे अंग मोह से व्याप्त हो रहे थे। वह बार-बार आश्चर्यचकित हो रही थी। एक ओर तो वह शाप से आतंकित थी, दूसरी ओर उसे भाई-बन्धुओं का भय लगा हुआ था। भूपाल ! उस दशा में वह लज्जा के कारण विश्रृंखल वाणी द्वारा सूर्यदेव से इस प्रकार बोली। कुन्ती ने कहा- देव ! मेरे पिता, माता तथा अन्य बान्धव जीवित हैं। उन सबके जीते-जी स्वयं आत्मदान करने पर कहीं शास्त्रीय विधि का लोप न हो जाय ? भगवन् ! यदि आपके साथ मेरा वेदोक्त विधि के विपरीत समागम हो, तो मेरे ही कारण जगत् में इस कुल की कीर्ति नष्ट हो जायगी अथवा तपने वालों में श्रेष्ठ दिवाकर ! यदि बन्धुजनों के दिये बिना ही मेरे साथ अपने समागम को आप धर्मयुक्त समझते हों, तो मैं आपकी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। दुर्धर्ष दे ! क्या मैं आपको आत्मदान करके भी सती-साध्वी रह सकती हूँ ? आपमें ही देहधारियों के धर्म, यश, कीर्ति तथा आयु प्रतिष्इित हैं। भगवान सूर्य ने कहा- शुचिस्मिते ! वरारोहे ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी बात सुनो। तुम्हारे पिता, मात अथवा अन्य गुरुजन तुम्हें (इस काम से रोकने में) समर्थ नहीं हैं। सुन्दर भाव वाली कुन्ती ! ‘कम्’ धातु से कन्या शब्द की सिद्धि होती है। सुन्दरी वह (स्वयंवर में आये हुए) सब वरों में से किसी को भी स्वतन्त्रता पूर्वक अपनी कामना का विषय बना सकती है; इसीलिये इस जगत् में उसं कन्या कहा गया है। ।कुन्ती ! मेरे साथ समागम करने से तुम्हारे द्वारा कोई अधर्म नहीं बन रहा है। भला ! मैं लौकिक कामवासना के वशीभूत होकर अधर्म का वरण कैसे कर सकता हूँ ? वरवर्णिनी ! मेरे लिए सभी स्त्रियाँ और पुरुषआवरण रहित हैं; क्योंकि मैं सबका साक्षी हूँ। जो अन्य सब विकार है, यह तो प्राकृत मनुष्यों का स्वभाव माना गया है। तुम मेरे साथ समागम करके पुनः कन्या ही बनी रहोगी और तुम्हें महाबाहु एवं महायशस्वी पुत्र प्राप्त होगा।। कुन्ती बोली- समस्त अनधकार को दूर करने वाले सूर्यदेव ! यदि आपसे मुझे पुत्र प्राप्त हो, तो वह महाबाहु, महाबली तथा मुण्डल और कवच से विभूषित शूरवीर हो।। सुर्य ने कहा- भद्रे ! तुम्हारा पुत्र महाबाहु, कुण्डल धारी तथा दिव्य कवच धारण करने वाला होगा। उसके कुण्डल और कवच दोनों अमृतमय होंगे।
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