महाभारत वन पर्व अध्याय 308 श्लोक 20-27
अष्टाधिकत्रिशततम (308) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
‘वत्स ! जब तू धरती पर पेट के बल सरकता फिरेगा बौर समझ मे न आने वाली मधुर तोतली बोली बोलेगा, उस समय तेरे धूलधूसरित अंगों को जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं | ‘पुत्र ! हिमालय जंगल में उत्पन्न हुए केसरी सिंह के समान तुझे जवानी में जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं’।। राजन् ! इस तरह बहुत-सी बातें कहकर करुण-विलाप करती हुई कुन्ती ने उस समय अश्व नदी के जल में वह पिटारी छोड़ दी । जनमेजय ! आधी रात के समय कमलनयनी कुन्ती पुत्रशोक से आतुर हो उसके दर्शन की लालसा से धात्री के साथ नदी के तट पर देर तक रोती रही । पेटीको पानी में बहाकर, कहीं पिताजी जग न जायँ, इस भय से वह शोक से आतुर हो पुनः राजभवन में चली गयी । वह पिटरी अश्वनदी से चर्मण्वती (चम्बल) नदी में गयी। चर्मण्वती से यमुना में और वहाँ से गंगा में जा पहुँची । पिटारी में सोया हुआ वह बालक गंगा की लहरों से बहाश जाता हुआ चम्पापुरी के पास सूतराज्य में जा पहुँचा।। उसके शरीर का दिव्य कवच और कानों के कुण्डल - ये अमृत से प्रकट हुए थे। वे ही विधाता द्वारा रचित उस देवकुमार को जीवित रख रहे थे ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में कर्ण परित्याग विषयक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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