महाभारत वन पर्व अध्याय 311 श्लोक 1-17
एकादशाधिकत्रिशततम (311) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन-काष्ठ का पता लगाने के लिये पाण्डवों का मृग के पीछे दौड़ना और दुखी होना जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन् ! इस प्रकार अपनी पत्नी द्रौपदी का अपहरण होने पर अत्यन्त क्लेश उठाकर पाण्डवों ने जब उन्हें पुनः प्राप्त कर लिया, उसके बाद उन्होंने क्या किया ? वैशम्पायनजी ने कहा- राजन् ! पूर्वोक्त प्रकार से द्रौपदी का हरण होने पर भारी क्लेश उठाने के बाद जब पाण्डवों ने उन्हें पा लिया, तब धर्म से कभी च्युत न होने वाले राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ काम्यकवन छोड़कर पुनः रमणीय द्वैतवन में चले आये। वहाँ स्वादिष्ट फल-मूलों की बहुतायत थी तथा बहुत से विचित्र वृक्ष उस वन शोभा बढ़ाते थे । वहाँ सब पाण्डव अपनी पत्नी द्रौपदी के साथ केवल फलाहार करके परिमित भोजन पर जीवन-निर्वाह करते हुए रहते थे । 1821 द्वैतवन में रहते समय कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव- इन सभी शत्रुसंतापी संयम-नियम-परायण धर्मात्मा पाण्उवों ने एक दिन एक ब्राह्मण के लिये पराक्रम करते हुए महान् क्लेश उठाया, परंतु उसका भावी परिणाम सुखमय ही हुआ । राजन् ! उस वन में रहते हुए उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों ने जो भविष्य में सुख देने वाला क्लेश उठाया, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो । एक तपसवी ब्राह्मण का (रस्सी से बँधा) अरणी सहित मन्थनकाष्ठ एक वृक्ष में टँगा था; वहीं एक मृग आकर उस वृक्ष से अपना शरीर रगड़ने लगा। उस समय वे दोनों काष्ठ उस मृग के सींग में अटक गये । राजन् ! उन काष्ठों को लेकर वह महामृग बड़ी उतावली से भागा और बड़े वेग से चैकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आरम से ओझल हो गया । कुरुश्रेष्ठ ! उस ब्राह्मण ने जब देखा कि मृग मेरी अरणी और मथानी लेकर तेजी से भागा जा रहा है, तब वह अग्निहोत्र की रक्षा के लिये तुरंत वहीं (पाण्डवों के आश्रम में) आया । वन में भाइयों के साथ बैइे हुए अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास तुरंत आकर संतप्त हुए उस ब्राह्मण ने इस प्रकार कहा- ‘राजन् ! मैंने अपनी अरणी और मथानी एक वृक्ष पर रख दी थी। एक मृग वहाँ आकर उस वृक्ष से शरीर रगड़ने लगा और उसके सींग में वे दानों काष्ठ फंस गये। वह महान् मृग उन काष्ठों को लेकर बड़ी उतावली के साथ भाग गया है और अत्यनत वेगवान् होने के कारण चैकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आश्रम से बहुत दूर निकल गया है । ‘महाराज युधिष्ठिर ! तथा वीर पाण्डवों ! तुम सब लोग उसके पदचिन्हों को देखते हुए उस महामृग के पास पहुँचो और वे दोनो काष्ठ ले आओ, जिससे मेरा अग्निहोत्र कर्म लुप्त न हो । ब्राह्मण क बात सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बहुत दुखी हुए और मृग का पता लगाने के लिये वे धनुष लेकर भाइयों सहित दौड़े । वे सभी नरश्रेष्ठ कवच बाँध एवं कमर कसकर धनुष लिये आश्रम से दौड़े और ब्राह्मण की कार्यसिद्धि के लिये प्रयत्नशील होकर तीव्र गति से मृग का पीछा करने लगे । कुद दूर जाने पर उन्हें वह मृग अपने पास ही दिखायी दिया। तब वे महारथी पाण्डव कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाण उसपर छोड़ने लगे; किंतु वे देखते हुए भी वहाँ उस मृग को बींध न सके।
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