महाभारत वन पर्व अध्याय 312 श्लोक 1-17

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द्वादशाधिकत्रिशततम (312) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद



पानी लाने के लिये गये नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर के तट पर अचेत होकर गिरना युधिष्ठिर बोले- भैया ! आपत्तियों की न तो कोई सीमा है, न कोई निमित्त दिखायी देता है और न कोई विशेष कारण ही परिलक्षित होता है। पहले का किया हुआ पुण्य और पापरूप कर्म ही प्रारब्ध बनकर सुख और दुःखरूप फल बाँटता रहता है। भीमसेन ने कहा- जब प्रतिकामी की जगह दूत बनकर गया हुआ दुःशासन द्रौपदी को कौरवों की सभा में दासी की भाँति बलपूर्वक खींच ले आया, उस समय मैंने जो उसका वध नहीं कर डाला; इसीके कारण हम लोग ऐसे धर्म संकट में पड़े हैं। अर्जुन बोले- सूतपुत्र कर्ण के कहं हंए कठोर अस्थियों को भी विदीर्ण कर देने वाले कड़वे वचन सुनकर भी जो हमने सहन कर लिये; उसी से आज हम धर्मसंकट की अवस्था में आ पहुँचे हैं। सहदेव ने कहा- भारत ! जब शकुनि ने आपको जूए में जीत लिया और उस समय मेंने उसे मार नहीं डाला, उसी का यह फल है कि आज हम लोग धर्मसंकट में पड़ गये हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने नकुल से कहा- ‘माद्रीनन्दन ! किसी वृक्ष पर चढत्रकर सब दिशाओं में दृष्टिपात करो। कहीं आप-पास पानी हो, तो देखो अथ्वा जल के किनारे होने वाले वृक्षों पर ही दृष्अि डालो। तात ! तुम्हारे ये भाई थके-माँदे और प्यासे हैं’। तब नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर शीघ्र ही एक पेड़ पर चढ़ गये और चारों ओर दृष्टि डालकर अपने बड़े भाई से बोले-‘राजन् ! मैं ऐसे बहुतेरे वृक्ष देख रहा हूँ, जो जल के किनारे ही होते हैं। सारसों की आवाज भी सुनायी देती है; अतः निःसंदेह यहाँ आस-पास ही कोई जलाशय है’। तब सत्य का पालन करने वाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने नकुल से कहा- ‘सौम्य ! शीघ्र जाओ और तरकसों में पानी भर लाओ’। नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर बड़े भाई की आज्ञा से शीघ्रतापूर्वक गये और जहाँ जलाशय था, वहाँ तुरंत पहुँच गये। 1823 वहाँ सारसों से घिरे हुए जलाशय का स्वच्छ जल देखकर नकुल को उसे पीने की इच्छा हुई। इतने में ही आकाश से उनके कानों में एक स्पष्ट वाणी सुनायी दी। यक्ष बोला- तात ! तुम इस सरोवर का पानी पीने का साहस न करो। इस पर पहलें से ही मेरा अधिकार हो चुका है। माद्रीकुमार ! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, फिर पानी पीओ और ले भी जाओ। नकुल की प्यास बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने यक्ष के कथन की अवहेलना करके वहाँ का शीतल जल पी लिया। पीते ही वे अचेत होकर गिर पड़े। नकुल के लौटने में जब अधिक विलम्ब हो गया, तब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अपने शत्रुहन्ता वीर भ्राता सहदेव से कहा- ‘सहदेव ! हमारे अनुज और तुम्हारे अग्रज भ्राता नकुल को यहाँ से गये बहुत देर हो गयी। तुम जाकर अपने सहोदर भाई को बुला लाओ और पानी भी ले आओ’। तब सहदेव ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसी दिशा की ओर चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, भाई नकुल पृथ्वी पर मरे पडत्रे हैं। भाई के शोक से उनका हृदय संतप्त हो उठा। साथ ही प्यास से भी वे बहुत कष्ट पा रहे थे; अतः पानी की ओर दौड़े। उसी समय आकाशवाणी बोल उठी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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