महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 129-133
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त्रयोदशाधिकत्रिशततम (313) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
यक्ष ! मेरा ऐसा विचार है कि वस्तुतः अनृशंसता (दया तथा समता) ही परम धर्म है। यही सोचकर मैं सबके प्रति दया और समान भाव रखना चाहता हूँ; इसलिये नकुल ही जीवित हो जाय। यक्ष ! लोग मेरे विषय में ऐसा समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं; अतएव में अपने धर्म से विचलित नहीं
1835
होऊँगा। मेरा भाई नकुल जीवित हो जाय। मेरे पिता के कुन्ती और माद्री नाम की दो भार्याएँ रहीं। वे दोनों की पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा विचार है। यक्ष ! मेरे लिये जैसी कुन्ती है, वैसी ही माद्री । उन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनों माताओं के प्रति समान भाव ही रखना चाहता हूँ। इसलिये नकुल ही जावित हो।
यक्ष ने कहा- भरतश्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काम से भी अधिक दया और समता का आदर किया है, इसलिये सभी भाई जीवित हो जायँ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में यक्ष प्रश्न विषयक तीन सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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