महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 17-34

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रयोदशाधिकत्रिशततम (313) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद



‘यह ऐसा ही होनहार है’, ऐसा कहकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर शोकसागर में मग्न तथा व्याकुल होकर भाइयों की मृत्यु के कारण पर विचार करने लगे। वे यह भी सोचने लगे कि ‘अब क्या करना चाहिये ?’ महाबुद्धिमान महाबाहु युधिष्ठिर देश और काल तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानने वाले थे; तो भी बहुत सोचने विचारने पर भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तत्पश्चात् धर्मात्मा और तपस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने मन को स्थिर करके बहुत विलाप करने के पश्चात् अपनी बुद्धि द्वारा यह विचार करने लगे- ‘इन वीरों को किसने मार गिराया है ? इनके शरीर में अस्त्र शस्त्रो के आघात का कोई चिन्ह नहीं है और न इस स्थान पर किसी दूसरे के पैरों का निशान ही है। मैं समझता हूँ, अवश्य वह कोई भारी भूत है, जिसने मेरे भाइयों को मारा है। ‘इस विषय में मैं चित्त को एकाग्र करके फिर सोचूँगा अथवा पानी पीकर इस रहस्य को समझने की चेष्टा करूँगा। सम्भव है, दुर्योधन चुपके-चुपके कोई षड़यन्त्र किया हो। ‘अथवा जिसकी बुद्धि में सदा कुटिलता ही निवास करती है, उस गान्धारराज शकुनि की भी यह करतूत हो सकती है। जिसके लिये कर्तव्य औ अकर्तव्य दोनों बराबर हैं, उस अजितात्मा शकुनि पर कौन वीर पुरुष विश्वास कर सकता है ? अथवा गुप्तरूप से नियुक्त किये हुए पुरुषों द्वारा दुरात्मा दुर्योधन ने ही यह हिंसात्मक प्रयोग किया होगा’। इस प्रकार परम बुद्धिमान युधिष्ठिर भाँति-भाँति की चिन्ता करने लगे। (परीक्षा करने पर) उन्हें इस बात का निश्चय हो गया था कि इस सरोवर के जल में जहर नहीं मिलायागया है। ‘क्योकि मर जाने पर भी मेरे इन भाइयों के शरीर में कोई विकृति नहीं उत्पन्न हुई है। अब भी मेरे इन भाइयों के मुख की कान्ति प्रसन्न है।’ इस तरह वे सोच-विचार में डूबे ही रहे। ‘मेरे इन पुरुषरत्न भाइयों में से प्रत्येक के शरीर में बल का अगाध सिन्धु लहराता था। आयु पूर्ण होने पर सबका अनत कर देने वाले यमराज के सिवा दूसरा कौन इनसे भिड़ सकता था ?’ इस प्रकार निश्चय करके युधिष्ठिर जल में उतरे। पानी में प्रवेश करते ही उनके कानों में आकाशवाणी सुनायी दी। 1827 यक्ष बोला- राजकुमार ! मैं सेवार और मछली खाने वाला बगुला हूँ। मैंने ही तुम्हारे छोटे भाइयों को यमलोक भेजा है; अतः मेरे पूछने पर यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर न दोगे, तो तुम भी यमलोक के अतिथि होआगे। तात ! जल पीने का साहस न करना। इस पर मेरा पहले से अधिकार हो गया है। कुन्तीकुमार ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और जल पीओ और ले भी जाओ। युधिष्ठिर बोले- मैं पूछता हूँ, तुम रुद्रो, वसुओं अथवा मरुद्गणों में से कौनसे देवता हो ? बताओ। यह कान किसी पक्षी का किया हुआ नहीं हो सकता ? मेरे महातेजस्वी भाई हिमवान्, पारियात्र? विन्ध्य तथा मलय- इन चारों पर्वतों के समान हैं। इन्हें किसने मार गिराया है ? बलवानों में श्रेष्ठ वीर ! तुमने यह अत्यन्त महान् कर्म किया है। बड़े-बड़े युद्धों में जि वीरों (के प्रभाव) को देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी नहीं सह सकते थे, उन्हें गिराकर तुमने परम अद्भुत पराक्रम किया है। तुम्हारा कार्य क्या है ? यह मैं नहीं जानता। तुम क्या चाहते हो ? इसका भी मुझे पता नहीं है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।