महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 53-62
द्वात्रिंश (32) अध्याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
धीर पुरूष मंगलमय कल्याण की वृद्धि के लिये अपनी बुद्धि के द्वारा शक्ति तथा बल का विचार करते हुए देश-काल के अनुसार साम-दाम आदि उपायों का प्रयोग करे। सावधान होकर देश-काल के अनुरूप कार्य करे। इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान) है। कार्य की समस्त युक्तियों में पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है। जहां बुद्धिमान् पुरूष शत्रु को अनेक गुणों से श्रेष्ठ देखे, वहां सामनीति से ही काम बनाने की इच्छा करे और उसके लिये जो संधि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, करे। महाराज युधिष्ठिर ! अथवा शत्रुपर कोई भारी संकट आने या देश से उसके निकाले जाने की प्रतीक्षा करे; क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उसपर भी विपत्ति लाने की इच्छा रखनी चाहिये, फिर जो मरणधर्मा मनुष्य है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ? शत्रुओं के छिद्र का अन्वेषण करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा करने से वह अपनी और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी निर्दोष होता है। भारत ! लोक को इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है-कार्यसिद्धि की यही व्यवस्था है। काल और अवस्था के विभाग के अनुसार शत्रु की दुर्बलता के अन्वेषण का प्रयत्न ही सिद्धि का मूल कारण है। भरतश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में मेरे पिताजी ने अपने घरपर एक विद्वान् ब्राह्मण को ठहराया था। उन्होंने ही पिताजी से बृहस्पतिजी की बतायी हुई इस सम्पूर्ण नीति का प्रतिपादन किया था और मेरे भाईयों को भी इसी की शिक्षा दी थी। उस समय अपेन भाइयों के निकट रहकर घर में ही मैंने भी उस नीति को सुना था। महाराज युधिष्ठिर ! मैं उस समय किसी कार्य से पिता के पाय आयी थी और यह सब सुनने की इच्छा से उनकी गोद में बैठ गयी थी। तभी उन ब्राह्मण देवता ने मुझे सान्त्वना देते हुए इस नीति का उपेदश दिया था।
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