महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 64-79

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त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 64-79 का हिन्दी अनुवाद

‘आत्मबल ही धन का मूल है, इसके विपरित जो कुछ है, वह मिथ्या है; क्योंकि हेमन्त ऋतु में वृक्षों की छाया के समान वह आत्मा की दुर्बलता किसी भी काम की नहीं है। ‘कुन्तीकुमार ! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजाने की लालसा से धान्य के अल्प बीजों का भूमि में परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पाने की इच्छा से अल्प अर्थ का त्याग किया जा सकता है। आपको इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। जहां अर्थ का उपयोंग करने पर उससे अधिक या समान अर्थ की प्राप्ति न हो वहां उस अर्थ को नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधों के शरीर को खुजलाने के समान व्यर्थ है। ‘नरेश्वर ! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्म का परित्याग करके महान् धर्म की प्राप्ति करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान् है। ‘मित्रों के सम्पन्न शत्रु को विद्वान् पुरूष अपने मित्रों द्वारा भेदनीति से उसमें और उसके मित्रों में फूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होने पर मित्र जब उसकों त्याग देते हैं, तब वे उस दुर्बल शत्रु को अपने वश में कर लेते हैं। ‘राजन् ! अत्यन्त बलवान् पुरूष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य प्रयत्न से या प्रशंसाद्वारा सब प्रजा को अपने वश में नहीं करता। ‘जैसे मधुमक्खियां संगठित होकर मधु निकालनेवाले को मार डालती हैं, उसी प्रकार सर्वथा संगठित रहनेवाले दुर्बल मनुष्योंद्वारा बलवान् शुत्र भी मारा जा सकता है। राजन् ! जैसे भगवान् सूर्य पृथ्वी के रस को ग्रहण करते और अपनी किरणों द्वारा वर्षा करके उन सब की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओं से कर लेकर उनकी रक्षा करते हुए सूर्य के ही समान हो जाइये। ‘राजेन्द्र ! हमोर बाप-दादों ने जो किया है, वह धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन भी प्राचीनकाल से चला आनेवाला तप ही है; ऐसा हमने सुना है। ‘धर्मराज ! क्षत्रिय तपस्या के द्वारा वैसे पुण्यलोकों को नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने लिये विहित युद्ध के द्वारा विजय अथवा मृत्यु को अंगीकार करने से प्राप्त करता है। ‘आपपर जो वह संकट आया है, उस समभव-सी घटना को देखकर लोग वह निश्चयपूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्य से उसकी प्रभा और चन्द्रमा से उसकी चांदनी भी दूर हो सकती है। ‘राजन् ! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओं में सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग समूह-के-समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधन की निंदा से ही सम्बन्ध रखनेवाली बातें करते हैं। ‘महाराज ! इसके सिवा, यह भी सुनने में आया है कि ब्राह्मण और कुरूवंशी एकत्र होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी सत्यप्रतिज्ञा का वर्णन करते हैं। ‘उनका कहना है कि आपके कभी न तो मोह से, न दीनता से, न लोभ से, न भय से, न कामना से और न धन के ही कारण से किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है। ‘राजा पृथ्वी को अपने अधिकार में करते समय युद्धजनित हिंसा आदि के द्वारा जो कुछ पाप करता है, वह सब राज्य प्राप्ति के पश्चात् भारी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा नष्ट कर देता है। ‘नरेश्वर ! ब्राह्मण को बहुत-से-गांव और सहस्त्रों गौएं दान में देकर राजा अपने समस्त पापों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकार से।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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