महाभारत वन पर्व अध्याय 39 श्लोक 60-77

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एकोनचत्‍वारिंश (39) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 60-77 का हिन्दी अनुवाद

उन दोनों की भुजाओं से टकराने और वृक्षःस्थलों के संघर्ष से उनके अंगों में धूम और चिनगारियों के साथ आग प्रकट हो जाती थी। तदनन्तर ! महादेवजी ने अपने अंगों से दबाकर अर्जुन को अच्छी तरह पीड़ा दी और उनके चित्त को मुच्र्छित सा करते हुए उन्होंने तेज तथा रोष से उनके ऊपर अपना पराक्रम प्रकट किया। भारत ! तदनन्तर देवाघिदेव महादेवजी के अंगों से अवरूद्ध हो अर्जुन अपने पीडि़त अवयवों के साथ मिट्टी के लोंदे से दिखायी देने लगे। महात्मा भगवान् शंकमर के द्वारा भलीभांति नियंत्रित हो जाने के कारण अर्जुन की श्वासक्रिया बंद हो गयी। वे निष्प्राण की भांति चेष्टाहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। दो घड़ी तक उसी अवस्था में पडे़ रहने के पश्चात् जब अर्जुन को चेत हुआ, तब वे उठकर खडे़ हो गये। उस समय उनका सारा शरीर खून से लथपथ हो रहा था और वे बहुत दुखी हो गये थे। वब वे शरणागतवत्सल पिनाकधारी भगवान् शिव की शरण में गये और मिट्टी की वेदी बनाकर उसी पर पार्थिव शिव की स्थापना करके पुष्पमाला के द्वारा उनका पूजन किया। कुन्तीकुमार ने जो माला पार्थिव शिव पर चढ़ायी थी, वह उन्हें किरात के मस्तक पर पड़ी दिखायी दी। यह देखकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन हर्ष से उल्लसित हो अपने आपे में आ गये। और किरातरूपी भगवान् श्ंाकर के चरणों में गिर पडे़। उस समय तपस्या के कारण उनके समस्त अवयव क्षीण हो रहे थे और वे महान् आश्रय में पड़ गये थे, उन्हें इस अवस्था में देखकर सर्वपापहारी भगवान् भव उनपर बहुत प्रसन्न हुए और मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले। भगवान् शिव ने कहा- फाल्गुन ! मैं तुम्हारे इस अनुपम पराक्रम, शौर्य और धैर्य से बहुत संतुष्ट हूं। तुम्हारे समान दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं है। अनघ ! तुम्हारा तेज और पराक्रम आज मेरे समान सिद्ध हुआ है। महाबाहु भरतश्रेष्ठ ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूं। मेरी ओर देखो। विशाललोचन ! मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूं। तुम पहले के ‘नर’ नाक ऋषि हो। तुम युद्ध में अपने शत्रुओं पर, वे चाहे सम्पूर्ण देवता ही क्यों न हों, विजय पाओगे। मैं तुम्हारे प्रेमवश तुम्हें अपना पाशुपतास्त्र दूंगा, जिसकी गति को कोई रोक नहीं सकता। तुम क्षण भर में मेरे उस अस्त्र को धारण करने में समर्थ हो जाओगे। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर अर्जुन ने शूलपाणि महातेजस्वी देवी पार्वतीसहित दर्शन किया। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कुन्तीकुमार ने उनके आगे पृथ्वीपर घुटने टेक दिये और सिर से प्रणाम करके शिव जी को प्रसन्न किया। अर्जुन बोले-जटाजूधारी सर्वदेवेश्वर देवदेव महादेव ! आप भगदेवता के नेत्रों का विनाश करने वाले हैं। आपकी ग्रीवा में नील चिन्ह्र शोभा पा रहा है। आप अपने मस्तक पर सुन्दर जटा धारण करते हैं। प्रभो ! मैं आपको समस्त कारणों में सर्वश्रेष्ठ कारण मानता हूं। आप त्रिनेत्रधारी तथा सर्ववयापी हैं। सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय हैं। देव ! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है। देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोक भी आपको पराजित नहीं कर सकते। आप ही विष्णुरूप शिव तथा शिव स्वरूप विष्णु हैं, आपको नमस्कार है। दक्षयज्ञ का विनाश करनेवाले हरिहररूप आप भगवान् को नमस्कार है। आपके ललाट में तृतीय नेत्र शोभा देता है। आप जगत् का संहारक होने के कारण शर्व कहलाते हैं। भक्तों की अभीष्ट कामनाओं की वर्षा करने के कारण आपका नाम मीढ्वान् (वर्षणशील) है। अपने हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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