महाभारत वन पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-19
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)
अर्जुन द्वारा देवराज इन्द्र का दर्षन तथा इन्द्रसभा में उनका स्वागत
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! अर्जुन ने सिद्धों और चारणों से सेवित उस रम्य अमरावती पुरी को देखा, जो सभी ऋतुओं के कुसुमों से विभूषित पुण्यमय वृक्षों से सुशोभित थी। वहां सुगन्धयुक्त कमल तथा पवित्र गन्धवाले अन्य पुष्पों की पवित्र गन्ध से मिली हुई वायु मानो व्यजन डुला रही थी। अप्सराओं से सेवित दिव्य नन्दनवन का भी उन्होंने दर्शन किया, जो दिव्य पुष्पों से भरे हुए वृक्षों द्वारा मानों उन्हें अपने पास बुला रहा था। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, जाउे अग्निहोत्र से दूर रहे हैं तथा जिन्होंने युद्ध में पीठ दिखा दी है, वैसे लोग पुण्यात्माओं के उस लोक का दर्शन भी नहीं कर सकते। जिन्होंने यज्ञ नहीं किया है, व्रत का पालन नहीं किया है, जो वेद और श्रुतियों के स्वाध्याय से दूर रहे हैं, जिन्होंने तीथों में स्नान नहीं किया है, तथा जो यज्ञ और दान आदि सत्कर्मों से वंचित रहे हैं, ऐसे लोगों को भी उस पुण्यलोक का दर्शन नहीं हो सकता। जो यज्ञों में विघ्न डालनेवाले नीच, शराबी, गुरूपत्नीगामी, महासाहारी तथा दुरात्मा हैं, वे तो किसी भी प्रकार भी उस दिव्य लोक का दर्शन नहीं पा सकते। जहां सब ओर दिव्य संगीत गूंज रहा था, उस दिव्य वन का दर्शन करते हुए महाबाहु अर्जुन ने देवराज इन्द्र की प्रिय नगरी अमरावती में प्रवेश किया। वहां स्वेच्छानुसार गमन करनेवाले देवताआंे के सहस्त्रों विमान स्थिरभाव से खड़े थे और हजारों इधर-उधर आते जाते थे। उन सबको पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देखा। उस समय गन्र्धव और अप्सराएं उनकी स्तुति कर रही थीं। फूलों की सुगन्धका भार वहन करनेवाली पवित्र मन्द-मन्द वायु मानों उनके लिये चंवर डुला रही थी। तदनन्तर देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों और महर्षियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुन का स्वागत-सत्कार किया। कहीं उन्हें आर्शीवाद मिलता और कहीं स्तुति-प्रशंसा प्राप्त होती थी। स्थान-स्थानपर दिव्य वाद्यों की मधुर ध्वनि से उनका स्वागत हो रहा था। इस प्रकार महाबाहु अर्जुन शंख और दुन्दुभियों के गम्भीर नाद से गूंजते हुए ‘सुरवीथी, नाम से प्रसिद्ध विस्तृत नक्षत्र-मार्ग पर चलने लगे। इन्द्र की आज्ञा से कुन्तीकुमार का सब ओर स्तवन हो रहा था और इस प्रकार वे गन्तव्य मार्ग पर बढ़ते चले जा रहे थे। वहां साध्य, विश्वेदेव, मरूद्रण, अश्विनी कुमार, आदित्य, वसु, रूद्र तथा विशुद्ध ब्रह्मर्षिगण और अनेक राजर्षिगण एवं दिलीप आदि बहुत-से राजा, तुम्बुरू, नारद, हाहा, हुहु आदि गन्धर्वगण विराजमान थे। शत्रुओं का दमन करनेवाले कुरूनन्दन अर्जुन ने उन सबसे विधिपूर्वक मिलकर अन्त में सौ यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले देवराज इन्द्र का दर्शन किया। उन्हें देखते ही महाबाहु पार्थ उस उत्तम रथ से उतर पड़े और देवेश्वर पिता पाकशासन (इन्द्र) को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिसमें मनोहर स्वर्णमय दण्ड शोभा पा रहा था। उनके उभय पाश्र्व में दिव्य सुगन्ध से वासित चंवर डुलाये जा रहे थे। विश्वावसु आदि गन्धर्व स्तुति और वन्दनापूर्वक उसके गुण गाते थे। श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिगण ऋग्र्वेद और सामवेद के इन्द्र देवता सम्बन्धी मंत्रोंद्वारा उनका स्तवन कर रहे थे। तदनन्तर बलवान् कुन्तीकुमार ने निकट जाकर देवेन्द्र के चरणों में मस्तक रख दिया और उन्होंने ने अपनी गोल-गोल मोटी भुजाओं से उठाकर अर्जुन को हृदय से लगा लिया।
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