महाभारत वन पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-12
पञ्चाशत्तम (50) अध्याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)
वन में पाण्डवों का आहार
जनमेजय बोले-मुने ! वीर पाण्डवों को वन में निर्वासित करके राजा धृतराष्ट्र ने जो इतना शोक किया, यह व्यर्थ था। उस मंदबुद्धि राजकुमार दुर्योधन को ही किसी तरह त्याग देना उसके लिये सर्वथा उचित था, जो महारथी पाण्डवों को अपने दुव्र्यवहार से कुपित करता जा रहा था। विप्रवर ! बताइये, पाण्डवलोग वन में क्या भोजन करते थे ? जंगली फल-मूल या खेती से पैदा हुआ ग्रामीण अन्न ? इसका आप स्पष्ट वर्णन कीजिये। वैशम्पायनजी ने कहा- राजन् ! पुरूषश्रेष्ठ पाण्डव जंगली फल-मूल और खेती से पैदा हुए अन्नादि भी पहले ब्राह्मणों को निवेदन करके फिर स्वयं खाते थे एवं सब लोगों की रक्षा के लिये केवल बाणों के द्वारा ही हिसंक वस्तुओं को मारा करते थे। राजन् ! उन दिनों वन में निवास करनेवाले महाधनुर्धर शूरवीर पाण्डवों के साथ बहुत-से साग्निक (अग्निहोत्री) और निरग्रिक (अग्निहोत्ररहित) ब्राह्मण भी रहते थे। राजा युधिष्ठिर जिनका पालन करते थे, वे महात्मा, स्नातक, मोक्षवेत्ता ब्राह्मण इस हजार की संख्या में थे। वे रूरूमृग, कृष्णमृग तथा अन्य जो मेध्य (पवित्र) हिसंक वनजन्तु थे, उन सबको विविध बाणोंद्वारा मारकर उनके चर्म ब्राह्मणों को आसनादि बनाने के लिये अर्पित कर देते थे।। वहां उन ब्राह्मणों में से कोई भी ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके शरीर का रंग दूषित हो अथवा जो किसी रोग से ग्रस्त हो। उनमें से कोई कृशकाय, दुर्बल, दीन अथवा भयभीत भी नहीं जान पड़ता था। कुरूकुलतिलक धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों का प्रिय पुत्रों की भांति तथा ज्ञातिजनों का सहोदर भाइयों के समान पालन-पोषण करते थे। इसी प्रकार यशस्विनी द्रौपदी भी पतियों तथा समस्त द्विजातियों को माता के समान पहले भोजन कराकर पीछे बचा-खुचा आप खाती थी। राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशा में, भीमसेन दक्षिण दिशा में तथा नकुल-सहदेव पश्चिम एवं उत्तर दिशा में और कभी सब मिलकर नित्य वन में निकल जाते ओर धनुषधारी (डाकुओं) तथा हिंसक पशुओं का संहार किया करते थे। इस प्रकार काम्यवन में अर्जुन से वियुक्त एवं उनके लिये उत्कण्ठित होकर निवास करनेवाले पाण्डवों के पांच वर्ष व्यतीत हो गये। इतने समय तक उनका स्वाध्याय, जप और होम सदा पूर्ववत् चलता रहा।
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