महाभारत वन पर्व अध्याय 52 श्लोक 20-38

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्विपञ्चाशत्तम (52) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

‘तात ! शत्रुदमन ! महाराज ! हम नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करके अपने किये हुए पाप को धो-बहाकर उत्तम स्वर्गलोग में चलेंगे। ‘राजन् ! यदि ऐेसा हो तो आप हमारे धर्मपरायण राजा अविवेकी और दीर्घसुत्री नहीं समझे जायेंगे। ‘शठता करने या जाननेवाले शत्रुओं को शठता के द्वारा ही मारना चाहिये, यह एक सिद्धान्त है। जो स्वयं दूसरों पर छल-कपट का प्रयोग करता है, उसे छल से भी मार डालने में पाप नहीं बताया गया है। ‘भरतवंशी महाराज ! धर्मशास्त्र में इसी प्रकार धर्मपरायण धर्मज्ञ पुरूषों द्वारा यहां एक दिन-रात एक संवत्सर के समान देखा जाता है। ‘प्रभो ! महाराज ! इसी प्रकार सदा यह वैदिक वचन सुना जाता है कि कृच्छ्रव्रत के अनुष्ठान एक वर्ष की पूर्ति हो जाती है। ‘अच्युत ! यदि आप वेद को प्रमाण मानते हैं तो तेरहवें दिन के बाद ही तेहर वर्षाे का समय बीत गया, ऐसा समझ लीजिये। ‘शत्रुदमन ! यह दुर्योधन को उसके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालने का अवसर आया है। राजन् ! वह सारी पृथ्वी को जबतक एक सूत्र में बांध ले, उसके पहले ही यह कार्य कर लेना चाहिये। ‘राजेन्द्र ! जूए के खेल में आसक्त होकर आपने ऐसा अनर्थ कर डाला कि प्रायः हम सब लोगों को अज्ञातवास के संकट में लाकर पटक दिया। ‘मैं ऐसा कोई देश या स्थान देखता, जहां अत्यन्त दुष्टचित्त, दुरात्मा दुर्योधन अपने गुप्तचरों द्वारा हमलोगों का पता न लगा ले। वह नीच नराधम हम सब लोगों का गुप्त निवास जान लेने पर पुनः अपनी कपटपूर्ण नीति द्वारा हमें इस वनवास में ही डाल देगा। ‘यदि वह पापी किसी प्रकार यह समण् ले कि हम अज्ञातवास अवधि पार कर गये हैं, तो वह उस दशा में हमें देखकर पुनः आपको ही जूआ खेलने के लिये बुलायेगा। ‘महाराज ! आप एक बार जूए के संकट से बचकर दुबारा द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत हो गये थे, अतः मैं समझता हूं, यदि पुनः आपका द्यूत के लिये आवाहन हो तो आप उससे पीछे न हटेंगे। ‘नरेश्वर ! इन विवेकशून्य शकुनि जूआ फेंकने की कला में कितना कुशल है, वह आप अच्छी तरह जानते हैं, फिर तो उसमें हारकर आप पुनः वनवास ही भागोंगे। ‘महाराज ! यदि आप हमें दीन, हीन, कृपण ही बनाना चाहते हैं तो जबतक जीवन है, तबतक सम्पूर्ण वेदोक्त धर्मो के पालन पर ही दृष्टि रखिये। ‘अपना निश्चय तो यही है कि कपटी को कपट से ही मारना चाहिये। यदि आपकी आज्ञा हो तो जैसे तृण की राशि में डाली हुई आग हवा का सहारा पाकर उसे भस्म कर डालती है, वैसे ही मैं जाकर अपनी शक्ति के अनुसार उस मूढ दुर्योधन का वध कर डालू, अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने उपर्युक्त बाते कहनेवाले पाण्डुनन्दन भीमसेन का मस्तक सूंघकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा-‘महाबाहो ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तुम तेरहवें वर्ष के बाद गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ जाकर युद्ध में सुयोधन को मार डालोगे। ‘किंतु शक्तिशाली वीर कुन्तीकुमार ! तुम जो यह कहते हो कि सुयोधन के वध का अवसर आ गया है, वह ठीक नहीं है। मैं झूट नहीं बोल सकता, मुझमें यह आदत नहीं है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।