महाभारत वन पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-18
चतु:पञ्चाशत्तम (54) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
स्वर्ग में नारद और इन्द्र की बातचीत, दमयन्ती के स्वयंवर के लिये राजाओं तथा लोकपालों का प्रस्थान
बृहदश्व मुनि कहते हैं-भारत ! दमयन्ती ने जब से हंस की बात सुनीं, तब से राजा नल के प्रति अनुरक्त हो जाने के कारण वह अस्वस्थ रहने लगी। तदनन्तर उसने मन में सदा चिन्ता बनी रहती थी। स्वभाव में दैन्य आ गया। चेहरे का रंग फीका पड़ गया और दमयन्ती दिन-दिन दुबली होने लगी। उस समय वह प्रायः लम्बी सांसें खींचती रहती थी। ऊपर की ओर निहारती हुई सदा नल के ध्यान में परायण रहती थी। देखने में उन्मत्त-सी जान पड़ती थी। उसका शरीर पाण्डवर्ण का हो गया। कामवेदना की अधिकता से उसकी चेतना क्षण-क्षण में विलम्ब सी हो जाती थी। उसकी शय्या, आसन तथा भोग-सामग्रियों में कहीं भी प्रीति नहीं होती थी। वह न तो रात में सोती और न दिन में ही। बारंबार ‘हाय-हाय’ करके रोती ही रहती थी। उसकी वैसी आकृति और अस्वस्थ-अवस्था का क्या कारण है, यह सखियों ने संकेत से जान लिया था। तदनन्तर दमयन्ती की सखियों ने विदर्भ नरेश को उसकी उस अस्वस्थ अवस्था के विषय में सूचना दी। सखियों के मुख से दमयन्ती के विषय में वैसी बात सुनकर राजा भीम ने बहुत सोचा-विचारा, परन्तु अपनी पुत्री के लिये कोई विशेष महत्वपूर्ण कार्य उन्हें नहीं सूक्ष पड़ा। वे सोचने लगे कि क्यों मेरी पुत्री आजकल स्वस्थ नहीं दिखायी देती है ?’ राजा ने बहुत सोचने-विचारने के बाद एक निश्चय किया कि मेरी पुत्री अब युवावस्था में प्रवेश कर चुकी, अतः दमयन्ती के लिये स्वयंवर रचाना ही उन्हें अपना विशेष कर्तव्य दिखायी दिया। राजन् ! विदर्भनरेश ने सब राजाओं को इस प्रकार निमन्त्रित किया-‘वीरो ! मेरे यहां कन्या का स्वयंवर है। आपलोग पधारकर इस उत्सव का आनंद लें। दमयन्ती का स्वयंवर होने जा रहा है, यह सुनकर नरेश विदर्भराज भीम के आदेश से हाथी, घोड़ों तथा रथों की तुमुल ध्वनि से पृथ्वी को गुंजाते हुए उनकी राजधानी में गये। उस समय उनके साथ विचित्र माला एवं आभूषणों से विभूषित बहुत-से सैनिक देखे जा रहे थे। महाबाहु राजा भीम ने वहां पधारे हुए उन महामना नरेशों का यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात् वे उनके पूजित हो वहीं रहने लगे। इसी समय देवर्षिप्रवर महान् व्रतधारी महाप्राज्ञ नारद और पर्वत दोनों महात्मा इधर घूते हुए इन्द्रलोक में गये। वहां उन्होंने देवराज के भवन में प्रवेश किया। उस भवन में उनका विशेष आदर सत्कार और पूजन किया गया। उन दोनों की पूजा करके भगवान् इन्द्र ने उनसे उन दोनों के तथा सम्पूर्ण जगत् कुशल-मंगल एवं स्वस्थता का समाचार पूछा। तब नारदजी ने कहा-प्रभो ! देवेश्वर ! हम लोगों की सर्वत्र कुशल है और समस्त लोकों में भी राजालोग सकुशल हैं। बृहदश्व कहते हैं-राजन् नारद की बात सुनकर बल और वृत्रासुर का वध करनेवाले इन्द्र ने उनसे पूछा-मुने ! जो धर्मज्ञ भूपाल अपने प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हैं और पीठ न दिखाकर लड़ते समय किसी शस्त्र के आघात से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनके लिये हमारा यह स्वर्गलोक अक्षय हो जाता हैं और मेरी ही तरह उन्हें भी यह मनोवांछित भोग प्रदान करता है।
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