महाभारत वन पर्व अध्याय 69 श्लोक 41-50
एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
‘प्राणनाथ ! पति को उचित है कि वह सदा अपनी पत्नी का भरण-पोषण एवं संरक्षण करे। आप धर्मज्ञ और साधु पुरूष हैं, आपके ये दोनों कर्तव्य सहसा नष्ट कैसे हो गये ? ‘आप विख्यात विद्वान्, कुलीन और सदा सबके प्रति दयाभाव रखनेवाले हैं, परंतु मेरे हृदय यह संदेह होने लगा है कि आप मेरा भाग्य नष्ट होने के कारण मेरे प्रति निभर्य हो गये हैं। ‘नरव्याघ्र ! नरोत्तम! मुझपर दया करो। मैंने तुम्हारे ही मुख से सुन रक्खा है कि दयालुता सबसे बड़ा धर्म है’। ‘ब्राह्मणों ! यदि आपके ऐसी बाते कहने पर कोई किसी प्रकार भी आपको उत्तर दे तो उस मनुष्य का सब प्रकार से परिचय प्राप्त कीजियेगा कि वह कौन है और कहां रहता है, इत्यादि। ‘विप्रवरो ! आपके इन वचनों को सुनकर जो कोई मनुष्य जैसा भी उत्तर दे, उसकी वह बात याद रखकर आपलोग मुझे बतावें। ‘किसी को भीयह नहीं मालूम होना चाहिये कि आपलोग मेरी आज्ञा से यह बाते कह रहे हैं। जब कोई उत्तर मिल जाये, तब आप आलस्य छोड़कर पुनः यहां तुरन्त लौट आवें। ‘उत्तर देनेवाला पुरूष धनवान् हो या निर्धन, समर्थ हो या असमर्थ, वह क्या करना चाहता है, इस बात को जानने का प्रयत्न कीजिये’। राजन् ! दमयन्ती के ऐसा कहने पर वे ब्राह्मण संकट में पडे़ हुए राजा नल को ढूंढ़ने के लिये सब दिशाओं की ओर चले गये। युधिष्ठिर ! उन ब्राह्मणों के नगरो, राष्ट्रों, गांवों, गोष्ठों तथा आश्रमों में भी नल का अन्वेषण किया ; किंतु उन्हें कहीं भी पता न लगा। महाराज ! दमयन्ती ने जैसा बताया था, उस वाक्य को सभी ब्राह्मण भिन्न-भिन्न स्थानों पर जाकर लोगों को सुनाया करते थे।
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