महाभारत वन पर्व अध्याय 72 श्लोक 20-38

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द्विसप्ततितम (72) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

‘बाहुक ! यदि आज विदर्भदेश में पहुंचकर तुम मुझे सूर्य का दर्शन करा सको तो तुम जो कहोगे, तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा। यह सुनकर बाहुक ने कहा-‘मैं बहेड़े के फलों को गिनकर विदर्भदेश को चलूंगा। आप मेरी यह बात मान लीजिये’। राजा ने मानो अनिच्छा से कहो-‘अच्छा , गिन लो । अश्वविद्या के तत्व को जाननेवाले निष्पाप बाहुक ! मेरे बताये अनुसार तुम शाखा के एक ही भाग को गिनो। इससे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी’। बाहुकने रथ से उतरकर तुरन्त ही उस वृक्ष को काट डाला। गिनने से उसे उतने ही फल मिले। तब उसने विस्मित होकर राजा ऋतुपर्ण से कहा- ‘राजन् ! आप में गणित की एक अद्भुत शक्ति मैंने देखी है। नराधिप ! जिस विद्या में यह गिनती जान ली जाती है, मैं उसे सुनना चाहता हूं।’ राजा तुरन्त जाने के लिये उत्सुक थे, अतः उन्होंने बाहुक से कहा-‘तुम द्यूत-विधा का मर्मज्ञ और गणित अत्यन्त निपुण समझो’। बाहुक ने कहा-पुरूषश्रेष्ठ ! तुम यह विद्या मुझे बतला दो और बदले में मुझसे भी अश्व-विद्या का रहस्य ग्रहण करो लो’। तब राजा ऋतुवर्ण ने कार्य गुरूता और अश्वविज्ञान के लोभ से बाहुक को आश्वासन दते हुए कहा-‘तथास्तु’। ‘बाहुक ! तुम मुझे से द्यूत-विद्या का गूढ़ रहस्य ग्रहण करो और अश्वविज्ञान को मेरे लिये अपने पास धरोवर के रूप में रहने दो।’ ऐसा कहकर ऋतुपर्ण नल को अपनी विद्या दे दी। द्यूत-विद्या का रहस्य जानने पर अनन्तर नल के शरीर से कलियुग निकला। वह कर्कोटक नाग के तीखे कष्ट में पड़े हुए कलियुग की वह शपाग्नि भी दूर हो गयी। राजा नल को उसने दीर्धकाल तक कष्ट कर दिया था। और उसी के कारण वे कर्तव्यत्रिमूढ़ हो रहे है। तदनन्तर विष के प्रभाव से मुक्त होकर कलियुग ने अपने रूपरूप को प्रकट किया। उस समय निषधनरेश नल ने कुपित हो कलियुग को शाप देने की इच्छा की। तब कलियुग भयभीत होता कांपता हुआ हाथ जोड़ उन से बोला-‘महाराज ! अपने क्रोध को राकिये। मैं आपको उत्तम कीर्ति प्रदान करूंगा। ‘इन्द्रसेन की माता दमयन्ती ने, पहले जब उसे अपने वन में त्याग दिया था, कुपित होकर मुझे शाप दे दिया। उससे मैं बड़ा कष्ट पाता रहा हूं। ‘किसी से पराजित न होनेवाले महाराज ! मैं आपके शरीर में अत्यन्त दुःखित होकर रहता था। नागराज कर्कोटक के विष से मैं दिन-रात झुलसता जा रहा था (इस प्रकार मुझे अपने किये का कठोर दण्ड मिल गया है)। ‘अब मैं आपकी शरण में हूं। आप मेरी यह बात सुनिये, यदि भय पीडि़त और शरण के आये हुए मुझको आप शाप नहीं देंगे। तो संसार में जो मनुष्य आलस्यरहित हो आपका कीर्ति-कथा का कीर्तन करेंगे, उन्हें मुझसे कभी भय नहीं होगा।’ कलियुग के ऐसा कहने पर राजा नल ने अपने क्रोध को रोक लिया। तदनन्तर कलियुग भयभीत हो तुरन्त ही बहेड़े के वृक्ष में समा गया। यह जिस समय निषधराज नल के साथ बात कर रहा था, उस समय दूसरे लोग उसे नहीं देख पाते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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